-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली का मध्यवर्गीय खुशहाल परिवार। पिता रेलवे में,
मां घर में। बड़ा बेटा नौकरी में,
छोटा बारहवीं में। दादी खटिया पर। तभी पता चला कि घर में एक नन्हा मेहमान आने वाला है। मां,
फिर से मां बनने वाली है। भूचाल आ गया जी। बेटों ने मां-बाप से मुंह मोड़ लिया, दादी ने बेटे-बहू से। परिवार, मौहल्ले, बिरादरी, समाज में छिछालेदार होने लगी, सो अलग। लेकिन अंत भला,
तो सब भला।
हिन्दी पट्टी में रहने वाले मध्यवर्गीय परिवारों की कहानियां दिखाती इधर काफी सारी फिल्में आने और भाने लगी हैं। आयुष्मान खुराना (और राजकुमार राव) तो इन फिल्मों का चेहरा हो गए हैं। आयुष्मान की ‘विकी डोनर’,
‘दम लगा के हईशा’,
‘बरेली की बरफी’, ‘शुभ मंगल सावधान’ जैसी फिल्मों में इन परिवारों की भीतरी उठा-पटक,
वर्जनाएं,
अपने ही बनाए दायरे से बाहर निकलने की छटपटाहट की कहानियां हमने देखी हैं। ‘बधाई हो’
भी इसी कड़ी में एक सधा हुआ कदम है। कुछ दशक पहले तक परिवारों में कई-कई संतानों का होना, बड़े-बड़े बच्चों वाली मांओं का फिर से मां बनना सहज माना जाता हो लेकिन हाल के बरसों में परिवारों की जो सूरत बदली है,
वैसे माहौल में ये सब अब उतना स्वीकार्य नहीं रह गया है। अब ऐसी खबरों पर लोगों के मुंह चलने लगते हैं,
उंगलियां उठने लगती हैं। यह फिल्म उन्हीं चलती ज़ुबानों और उठती उंगलियों को करारा जवाब देती है-थोड़े प्यार से,
थोड़ी हंसी के साथ और बड़े ही कायदे से।
फिल्म दिखाती है कि किस तरह से किसी लीक से हट कर होने वाली बात या घटना के बाद हम ‘लोग क्या कहेंगे’ सिन्ड्रोम से ऐसा घिर जाते हैं कि अपनों का ही साथ छोड़ने लगते हैं, और वह भी ठीक ऐसे वक्त पर जब उन्हें हमारी ज़्यादा ज़रूरत होती है। फिल्म जताती है कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमने अपने चारों तरफ अपनी ही बंद सोच का दायरा बना लिया होता है। फिल्म बताती है कि अगर हम इस दायरे से निकल जाएं, अपनी तंग सोच से उबर जाएं तो फिर कोई दिक्कत नहीं आती।
बेहद करीने से लिखी गई इस कहानी के लिए अक्षत घिल्डियाल, ज्योति कपूर और शांतनु श्रीवास्तव बधाई और तारीफ ही नहीं, अवार्ड के भी हकदार हैं। इस किस्म के नाज़ुक विषय पर बनी कहानियों के साथ यह सावधानी बरतनी बड़ी ज़रूरी होती है कि वे फैमिली वाली भावनाओं की पटरी से उतर कर भौंडेपन के रास्ते पर न चलने लगें जैसा आयुष्मान की ही ‘शुभ मंगल सावधान’ में हुआ था। लेकिन इस फिल्म के लेखकों ने बड़ी ही समझदारी से कहानी को संभाला है और बिना रास्ता भटके इसे मंज़िल तक भी ले गए हैं। अपनी कॉमिक सिचुएशंस और चुटीले संवादों के चलते यह फिल्म लगातार आपके होठों पर मुस्कान बनाए रखती है जो बीच-बीच में ठहाकों में भी बदलती है। अंत में आप अपनी आंखों में हल्की-सी नमी भी महसूस कर सकते हैं। ‘तेवर’ दे चुके डायरेक्टर अमित रवींद्रनाथ शर्मा ने काफी सधा हुआ काम किया है। सैट, लोकेशन, साज-सज्जा, कॉस्टयूम, रंगत, छोटे-छोटे किरदार फिल्म
के मूड को भाते हैं। कई जगह सीन के मूड के हिसाब से कहीं-कहीं बजते पुराने फिल्मी गीत
प्रभावी रहे हैं। हां,
दिल्ली में रह रहे मेरठ के कौशिक परिवार की भाषा कहीं ब्रज तो कहीं हरियाणवी हो जाती है। वहीं पंजाबी गानों का चयन भी फिट नहीं बैठता। लेकिन जब फिल्म का कंटैंट बढ़िया हो,
तो इन छोटी-मोटी चूकों पर ध्यान देकर अपना मज़ा क्यों किरकिरा करना?
आयुष्मान खुराना ऐसे किरदारों के महारथी हो चले हैं। सान्या मल्होत्रा के काम में चमक है। अच्छे रोल मिलते रहे तो वह और निखरेंगी। शीबा चड्ढा, शरदूल राणा, गजराज राव और नीना गुप्ता का काम भी उम्दा रहा लेकिन दादी बनी सुरेखा सीकरी किस तरह से सारा मजमा लूट ले जाती हैं,
यह इस फिल्म को देख कर ही जानें तो बेहतर होगा। खुशियों की किक मारती फिल्में कम ही आती हैं,
लपक लीजिए इसे।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार
पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए
हैं।)
Badia. Ab to ticket book karni padegi
ReplyDeleteशुक्रिया...
DeleteAwesome review surely gonna watch...
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteमतलब अब तो लपकनी ही पड़ेगी..!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रिव्यु...😊
शुक्रिया...
Deleteशानदार
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