-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
आठ बरस पहले आई ‘रोबोट’ में डॉ. वसीकरन के बनाए रोबोट चिट्टी को समाज के लिए खतरनाक मान कर सरकार ने लैब में बंद कर दिया था। लेकिन अब उसकी ज़रूरत आन पड़ी है। खतरा है ही इतना बड़ा कि सिर्फ चिट्टी ही उससे निबट सकता है। और यह खतरा है मोबाइल फोन से। सारे शहर के मोबाइल फोन अचानक उड़ कर गायब हो चुके हैं। कौन कर रहा है ऐसा और क्यों?
वसीकरन और चिट्टी कैसे निबटेंगे उससे?
‘रोबोट’ आई थी तो उसे देख कर गर्व महसूस हुआ था कि साईंस-फिक्शन पर सिर्फ हॉलीवुड का ही एकाधिकार नहीं है। वैज्ञानिक परिभाषाओं और मानवीय संवेदनाओं को मिला कर हमारे लोग भी कायदे की कहानी कह सकते हैं। इस फिल्म ने यह भी दिखाया था कि स्पेशल इफैक्ट्स के मामले में भी हम किसी से कम नहीं हैं। उम्दा कहानी, कसी हुई स्क्रिप्ट,
मंजे हुए निर्देशन, शानदार तकनीक,
गीत-संगीत, एक्शन, रोमांस, दुश्मनी, छल-कपट, अहं, हास्य, रजनीकांत-ऐश्वर्या राय-डैनी के सधे हुए अभिनय जैसे तमाम तत्व परोसते हुए इस फिल्म ने दक्षिण से आने वाली डब फिल्मों की आंधी को तेज किया था। इसीलिए जब से ‘रोबोट’ के सीक्वेल ‘2.0’
के आने की आहट हुई तो इस फिल्म पर उम्मीद भरी निगाहें जमने लगी थीं। लेकिन बड़े ही अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि यह फिल्म उम्मीदें तोड़ती है और सिर्फ स्पेशल इफैक्ट्स को छोड़ कर हर मोर्चे पर बेहद औसत दर्जे की लगती है।
एक पक्षी-विज्ञानी का मानना है कि मोबाइल फोन और मोबाइल टॉवर से निकलने वाले रेडिएशन से पक्षी मर रहे हैं। वह पक्षी-विज्ञानी कैसे बना,
इसके पीछे की जो बचकानी वजह फिल्म में बताई गई है उसे देख-जान कर आप चाहें तो हंस सकते हैं, चाहें तो लिखने वाले की अक्ल पर तरस भी खा सकते हैं। खैर, सब तरफ से यह बंदा इतना निराश हो जाता है कि इसे मोबाइल फोन और उसे इस्तेमाल करने वालों से नफरत हो जाती है। क्यों भई,
इस्तेमाल करने वालों की क्या गलती...?
लगता है डायरेक्टर शंकर यह भूल गए कि उन्हीं की फिल्म ‘अपरिचित’ का हीरो ट्रेन में घटिया खाना मिलने पर खाना खाने वाले,
बेचने वाले या बनाने वाले को नहीं मारता बल्कि उस ठेकेदार को मारता है जो पूरे पैसे लेकर भी घटिया खाना बनवाता है। यही व्यावहारिक भी है, तर्कसंगत भी। ओह,
हो,
हो... तर्क की बात तो आप इस फिल्म को देखते समय कीजिए ही मत। और आप हैं कौन? जिन्होंने ‘रेस 3’
और ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान’ हिट करवा खुद ही इन निर्देशकों को बता दिया कि आप चमकते रैपर में लिपटी घटिया चीज़ भी खुश होकर गटक लेते हैं। तो लीजिए, उन्होंने आपको बेहद शानदार स्पेशल इफैक्ट्स में लपेट कर यह फिल्म दे दी है, गटक लीजिए।
हॉलीवुड की फिल्मों में हम अक्सर देखते हैं कि एक भीड़ भरे इलाके में कोई सुपर विलेन और सुपर हीरो आपस में भिड़े हुए हैं,
लेकिन लोग उनकी तरफ ध्यान दिए बगैर आ-जा रहे हैं,
हालांकि इस भिड़ंत में ढेरों लोग मर रहे हैं, इमारतें टूट रही हैं, गाड़ियां उड़ रही हैं लेकिन लोग अपने में बिज़ी हैं और ये दोनों हैं कि बस, भिड़े हुए हैं। यह देख कर कई बार लगता है कि क्या सचमुच ऐसा हो सकता है?
यहां तो सड़क पर दो सांड भिड़ जाएं तो पब्लिक ऑफिस-दुकान जाना छोड़ कर मजमा लगा ले। लेकिन इस फिल्म में ऐसा ही है। भई,
एक तो आपको हॉलीवुड स्टाइल का एंटरटेनमैंट दे रहे हैं और आप हैं कि तर्क की पूंछ पकड़ कर झूल रहे हैं। हद है...!
चिट्टी ने आकर किया क्या, सिवाय साबू-नुमा हरकतें करने के,
जो चाचा चौधरी को बचाने के लिए सिर्फ ताकत का इस्तेमाल करता है,
दिमाग का नहीं। उससे बेहतर तो वो लेडी-रोबोट निकली। शक्ल से सपाट एमी जैक्सन सुंदर तो लग ही रही थीं। और पिछली वाली फिल्म के डैनी के इस फिल्म वाले बेटे, तुम को यह तीन सीन का ही रोल मिलना था?
कायदे का रोल तो इस बार किसी भी साइड-एक्टर को नहीं मिला। अक्षय कुमार पूरे समय गैटअप में ही रहे सो ध्यान उनके मेकअप पर ज़्यादा जाता है,
एक्टिंग पर कम। रजनीकांत के फैन चाहें तो उन्हें देख कर गिर-पड़-लेट सकते हैं लेकिन इस बार तो वो भी कम ही जंच रहे थे। और हां,
वसीकरन की पत्नी सना के लिए इन लोगों को कायदे का रोल तो छोड़िए, ऐश्वर्या राय की आवाज़ तक न मिल सकी, हाय...! गीत-संगीत पैदल है।
हालांकि फिल्म एक अच्छा मैसेज देने की कोशिश करती है कि आज हर इंसान मोबाइल फोन का गुलाम हो चुका है। लेकिन फिल्म के भीतर लड़ाई इस गुलामी से लड़ने की बजाय रेडिएशन से लड़ी जाती है। रेडिएशन इंसानों को भी नुकसान पहुंचाता है,
इस आशय के संवादों को सेंसर ने काट दिया। तो साबित क्या हुआ...?
पक्षियों के प्रति भी यह फिल्म कोई खास संवेदनाएं नहीं जगा पाती। दरअसल यही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि इसकी कहानी आपको छुए बगैर निकल जाती है और आप सिर्फ भव्य दृश्यों की चकाचौंध में खोए रहते हैं। फिल्म में कई सारे ब्रांड्स के विज्ञापन घुसेड़ने में जो दिमाग लगाया गया, उसे कहानी को मजबूत बनाने में लगाया जाता तो इसका कद कुछ और ही होता।
यह फिल्म सिर्फ और सिर्फ अपने स्पेशल इफैक्ट्स के लिए ही देखी जा सकती है। आंखों पर थ्री-डी चश्मा लगाने के बाद अपने दिमाग को स्लीप-मोड में डाल दीजिएगा। ज़रा-सा भी तर्क आपके मनोरंजन में खलल डाल सकता है।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
Perfect review ...
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteबहुत बढ़िया। बोर होने से बचाने के लिये शुक्रिया।
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteधन्यवाद भाई साहब, आपने बचा लिया हमें।
ReplyDeleteशुक्रिया भाई साहब...
Deleteरात में तीन घंटे और ९००/- डोनो बर्बाद हुए हैं
ReplyDeleteहा..हा..हा..
DeleteAwesome bro!!!
ReplyDeleteAwesome bro!!!
ReplyDeleteशुक्रिया...
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