Saturday, 13 April 2019

रिव्यू-बेरंग, बेतरतीब ’पहाड़गंज’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
पहाड़गंज-नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने स्थित एक रंग-बिरंगी बस्ती जिसकी गलियों से ज़्यादातर दिल्ली वाले भी वाकिफ नहीं हैं। देसी-विदेशी सैलानियों के रुकने के लिए यहां बड़ी तादाद में छोटे, मझौले, सस्ते, चलताऊ किस्म के होटल, गेस्ट-हाऊस वगैरह हैं। विदेशों से आने वाले निचले दर्जे के सैलानियों के बीच खासी लोकप्रिय जगह है यह और ऐसी तमाम जगहें अपने जिन उलटे, बदनाम धंधों के लिए जानी जाती हैं, वो सब यहां होते होंगे, ऐसा सुना और माना जाता है। निर्देशक राकेश रंजन कुमार की यह फिल्म इस बस्ती और इसके इर्द-गिर्द हो रही कुछ घटनाओं को दिखाती है।

फ़िल्म में एक साथ कई कहानियां चल रही हैं। स्पेन से लॉरा अपने प्रेमी रॉबर्ट को ढूंढने आई है। यहां उसके साथ रेप हो जाता है। होम मिनिस्टर के बेटे के कत्ल में भी रॉबर्ट का नाम सामने आता है। मवाली मुन्ना को इलाके का भाईबनना है। एक दूसरा मवाली उसके आड़े आता है। एक बास्केट बॉल कोच को अपने भाई की मौत का बदला लेना है। और भी कई धागे हैं इस कहानी के जो कभी समानांतर को कभी एक-दूसरे से उलझते हुए दिखाई देते हैं।

पहाड़गंज का इलाका हमारे फिल्मवाले इधर कुछ बरस से दिखाने लगे हैं। खासकर अनुराग कश्यप की देव डीके बाद से। लेकिन क्या यह इलाका वैसा है जैसा इस फिल्म में दिखाया गया है? और क्या इसे छोटा एम्सटर्डम (नीदरलैंड का शहर) कहना सही होगा, जैसा यह फिल्म कहती है? जवाब है-नहीं। मुमकिन है कि विदेशी सैलानियों की आवाजाही के चलते यहां हर किस्म का खुलापनहो लेकिन क्या यहां उस किस्म का गंदापनभी है, जैसा यह फिल्म बताती है?

अपने स्वरूप में यह फिल्म कभी एक थ्रिलर होने का अहसास देती है तो कभी सस्पैंस और भावनाओं में झूलती है। लेकिन इसकी पैदल कहानी इसे कहीं का नहीं रखती। इसे जिस कच्चेपन से लिखा गया है, वह हैरान करता है कि कैसे कोई इस कदर अधकचरी और बेतरतीब स्क्रिप्ट तैयार करके उस पर फिल्म बनाने की सोच सकता है। कहानी कभी कहीं तो कभी कहीं जा पहुंचती है। जो हो रहा है, उसके पीछे के कारण ही नहीं पता चलते। किरदार इस कदर कमज़ोर गढ़े गए हैं कि वह कोई असर ही नहीं छोड़ पाते। इन्हें निभाने वाले कलाकारों के नाम पर जो लोग लिए गए हैं उनमें से ज़्यादातर सिर्फ अनाड़ी हैं बल्कि उनका अनाड़ीपन पर्दे पर भी साफ दिखता है और देखने वाले की झल्लाहट का कारण बनता है। स्पेनिश अभिनेत्री लोरेना फ्रांको का इस्तेमाल भी यह फिल्म सिर्फ नाम भर के लिए कर पाती है ताकि इसमें इंटरनेशनल लुक सके। बैकग्राउंड म्यूज़िक चलताऊ किस्म का है। हां, कैमरा कई जगह रंगत बिखेरता है और दो-एक गाने कहानी से जुड़ पाने के बावजूद असरदार रहे हैं। खासतौर से कविता सेठ का गाया गीत।

निर्देशक राकेश रंजन इससे पहले गांधी टू हिटलरबना कर भी अच्छी-खासी आलोचनाएं और लानतें पा चुके हैं। उस फिल्म की तरह इस फिल्म में भी वह बतौर निर्देशक सिनेमा की विधा के साथ खिलवाड़ करते नज़र आते हैं। अफसोस इस बात का भी है कि उस फिल्म की तरह इस फिल्म में भी वह एक अच्छे बन सकने वाले विषय को और एक प्रभावी शीर्षक को बर्बाद करते हैं।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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