Thursday, 4 April 2019

रिव्यू-‘रोमियो अकबर वॉल्टर’-रॉ है, कच्ची है

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
बैंक में काम करने वाले एक शख्स को हमारी खुफिया एजेंसी रॉने परखा, उठाया, सिखाया और जासूस बना कर पाकिस्तान भेज दिया। थोड़े ही वक्त में वो वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआईकी नज़रों में गया। लेकिन उसने भी हार नहीं मानी और बाज़ी ऐसी पलटी कि सब देखते रह गए।

जासूस बनने के लिए चुना गया यह शख्स मुसलमान है। यानी पाकिस्तान भेजने में कोई दिक्कत नहीं। इस शख्स के पिता भारतीय फौज के बहादुर सिपाही थे जिन्होंने देश के लिए जान कुर्बान कर दी। यानी देशप्रेम तो इसके खून में है। इस शख्स के आगे-पीछे ले-दे कर सिर्फ एक मां है। यानी कोई बड़ी ज़िम्मेदारी भी नहीं जिसे छोड़ा जा सके। यह शख्स अपने भीतर एक उम्दा जासूस बनने की तमाम खूबियां या तो पहले से रखता है या उन्हें हासिल कर लेता है। यानी एकदम हीरो है हीरो।

माना कि रॉ वाले आम लोगों में से जासूस बनने लायक लोगों को चुनते हैं। माना कि इनके काम करने के तरीके कुछ अलग, कुछ अनोखे होते हैं। लेकिन इतने सारे संयोग...? चलिए, यह भी माना कि यह एक फिल्म है और फिल्म में फिल्मीपननहीं होगा तो कहां होगा। पर यार, ऐसा भी क्या फिल्मी होना कि आपके हीरो को कदम-कदम पर सब कुछ पका-पकाया मिलता रहे और हम उसे फिल्मीमान कर गड़प करते रहें, भले ही वो हमें हज़म हो?

एक जासूसी-थ्रिलर फिल्म में सबसे ज़रूरी होता है तनाव। आप कैसे ऐसी परिस्थितियां रचते हैं जो देखने वाले को बांध लें और उसे लगातार यह जानने के लिए बेचैन करती रहें कि अब क्या होगा, क्या वही होगा जो होना चाहिए या कुछ ऐसा होगा जो इस सारे हुए-धरे पर मिट्टी डाल दे? यह फिल्म इस मोर्चे पर बुरी तरह से नाकाम रहती है। हमारा हीरो बड़ी ही आसानी से पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में रहने लगता है। बड़ी ही आसानी से पाकिस्तान के सबसे बड़े हथियार-डीलर का विश्वास जीत लेता है। असल में स्क्रिप्ट की ये आसानियां ही इस फिल्म के रास्ते की सबसे बड़ी मुश्किलें हैं। आप को ठगे जाने का अहसास कराती घटनाएं लगातार पर्दे पर होती हैं। कभी अपने हीरो के भीतर अचानक से मां के प्रति प्यार जाग उठता है तो कभी वह मजनू बन पाकिस्तान की सड़कों पर लैला से मिलने को तब बेताब हो जाता है जब वहां की खुफिया एजेंसी उसके पीछे पड़ी है। लेकिन नहीं, जब हीरो-हीरोइन राज़ी तो क्या करेंगे आईएसआई वाले पाजी?

ऐसे ही विषय पर बीते बरस राज़ीआई थी। क्या तो कहानी थी उसमें और क्या तो ट्रीटमैंट। ऊपर से भावनाओं का ज्वार, देशप्रेम का बुखार और सबसे बढ़ कर था वो वाला तनाव, जो इस किस्म की कहानियां को दिलोदिमाग पर हावी बनाता है। लेकिन इस फिल्म में इनमें से कुछ भी नहीं है। हीरो और उसकी मां के बीच का प्यार आपको छूता तक नहीं। हीरो-हीरोइन की मोहब्बत आपको महसूस तक नहीं होती। यहां तक कि लिप-किस और हमबिस्तर होने जैसे फिल्मीमसाले भी बेअसर रहते हैं। अब रही देशप्रेम की बात, तो जहां राज़ीकी नायिका वतन के आगे कुछ नहीं, खुद भी नहींकहती है तो यहां अपना हीरो घिर जाने पर मेरा क्या होगापूछ कर सारे देशप्रेम की मिट्टी पलीद कर देता है। और जिस फिल्म को देखते हुए आपके तन में वतन के नाम पर एक झुरझुरी, एक सिहरन तक हो उस फिल्म में कैसा देशप्रेम। माना कि इन दिनों राष्ट्रवाद वाली फिल्मों की मंडी सजी हुई है तो आप कुछ भी बेचेंगे...?

निर्देशक रॉबी ग्रेवाल अपनी ही लिखी कमज़ोर स्क्रिप्ट से ऊपर नहीं उठ पाते। उनके निर्देशन में वह धार नहीं दिखती जो इस फिल्म को पैना बना पाती। इक्का-दुक्का सीन ही असरदार बन पाए हैं। संवाद कहीं तो बेवजह उलझे हुए हैं और कहीं एकदम सपाट। हां, फिल्म की पूरी लुक ज़रूर प्रभावी है। 1971 के वक्त का पाकिस्तान भी विश्वसनीय लगता है। तपन बासु की फोटोग्राफी अच्छी है। गीत-संगीत कमज़ोर। बैकग्राउंड म्यूज़िक बहुत खराब है। फिल्म बनाने वालों को समझना चाहिए कि सपाट सीन में सिर्फ टेन टेन टेन टेन...बजाने से उसमें तनाव नहीं भरा जा सकता। ऊपर से फिल्म की सुस्त रफ्तार रही-सही कसर पूरी कर देती है।

जॉन अब्राहम इस किस्म की भूमिकाओं में जंचते हैं, यहां भी जंचे हैं लेकिन वह प्रभावी भी रहे हों, ऐसा नहीं है। वजह है उनके किरदार से दर्शकों का जुड़ पाना। रॉ-प्रमुख बने जैकी श्रॉफ को देख कर लगता है कि उन्हें इज़्ज़त से रिटायर हो जाना चाहिए। मौनी रॉय को ढंग का रोल मिला, उन्होंने अपनी तरफ से इसमें कुछ डाला। इसाक़ आफरीदी बने अनिल जॉर्ज, रघुवीर यादव और सिकंदर खेर ही जमे। सुत्रित्रा कृष्णमूर्ति को बरसों बाद इतने कमज़ोर किरदार में देखना दुखा।

और अब बात लॉजिक की। फिल्म और लॉजिक? जी हां, जासूसी वाली थ्रिलर फिल्म में तो लॉजिक होना ही मांगता है। कोई छपाक से पानी में कूदे और पानी छलके, आवाज़ आए और वो बंदा मिनटों तक पानी में सांस रोक कर बैठा रहे? हीरो अपने आका के दगाबाज बेटे की पार्टी में पहुंच जाए, वहां दुश्मन देश वालों से बतियाता रहे और किसी की नज़र भी पड़े? कोई खाकी यूनिफॉर्म पहन कर आईएसआई के ऑफिस में जा घुसे और उसे कोई रोके-टोके भी ? ऐसे-ऐसे ढेरों सीन गिने जा सकते हैं इसमें। सबसे ज़ोरदार तो यह है कि पाकिस्तान वाले 22 नवंबर यानी दिवाली की रात को एक हमले की योजना बनाते हैं। अब फिल्म लिखने वाले कम से कम यह तो पता लगा ही सकते थे कि उस साल दिवाली 19 अक्टूबर की थी और 22 नवंबर को तो आज तक दिवाली नहीं आई।

इस फिल्म का तो नाम भी ज़बर्दस्ती का लगता है। खुफिया एजेंसी रॉका नाम बनाने के लिए जबरन रोमियो, अकबर, वॉल्टर बनाया गया। दरअसल इस फिल्म को बनाने वालों का इरादा तो बढ़िया था लेकिन रिसर्च और तैयारी के स्तर पर कसर बाकी रह गई और यह फिल्म रॉ बन कर रह गई। रॉ यानी कच्ची, अधपकी।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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