-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
25 जून,
1983-इंडियन टीम ने क्रिकेट वर्ल्ड कप जीता और ठीक उसी दिन सोलंकी परिवार में एक लड़की ज़ोया जन्मी। क्रिकेट के दीवाने पिता ने उसे लकी-चार्म मान लिया। बड़ी होकर काम के सिलसिले में यह लड़की इंडियन क्रिकेटर्स से मिली और हारती हुई टीम जीतने लगी। सबने मान लिया कि ज़ोया का लक-फैक्टर ही टीम को जिता रहा है। पर क्या सचमुच ऐसा है...?
25 जून,
1983-इंडियन टीम ने क्रिकेट वर्ल्ड कप जीता और ठीक उसी दिन सोलंकी परिवार में एक लड़की ज़ोया जन्मी। क्रिकेट के दीवाने पिता ने उसे लकी-चार्म मान लिया। बड़ी होकर काम के सिलसिले में यह लड़की इंडियन क्रिकेटर्स से मिली और हारती हुई टीम जीतने लगी। सबने मान लिया कि ज़ोया का लक-फैक्टर ही टीम को जिता रहा है। पर क्या सचमुच ऐसा है...?
कहानी दिलचस्प है, हट कर है,
और शायद इसीलिए 2008 में आया अनुजा चौहान का लिखा अंग्रेज़ी उपन्यास ‘द ज़ोया फैक्टर’ (अंग्रेज़ीदां पाठकों ने) काफी पसंद किया था। बरसों तक विज्ञापनों की दुनिया में काम करने और क्रिकेटर्स के अजीबोगरीब अंधविश्वासों को करीब से देखने वाली अनुजा ने इस उपन्यास में यह सवाल उठाया था कि क्या महज़ किसी एक शख्स के लक-फैक्टर से टीम इंडिया की परफॉर्मेंस बदली जा सकती है?
साथ ही हर चमत्कार को नमस्कार करने की आम लोगों की प्रवृत्ति को भी उन्होंने कटघरे में खड़ा किया था। पर क्या यह ज़रूरी है कि किसी बेस्टसेलर उपन्यास पर बनी फिल्म भी उतनी ही उम्दा और बेस्ट हो...?


