Friday 13 September 2019

रिव्यू-मर्ज़ी और ज़बर्दस्ती की बात ‘सैक्शन 375’ में

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
फिल्म की यूनिट में काम करने वाली एक लड़की के साथ उसके डायरेक्टर ने रेप किया। आरोप साबित हुआ और डायरेक्टर को 10 साल की सज़ा हो गई। केस हाई-कोर्ट में पहुंचा तो धीरे-धीरे केस की परतें खुलने लगीं, कुछ दबी हुई बातें सामने आने लगीं और कुछ ढके हुए सच आकर सवाल पूछने लगे कि जो हुआ उसमें मर्ज़ी ज़्यादा थी या ज़बर्दस्ती...?

अपने कानून की धारा 375 रेप की परिभाषा बताती है जिसमें साफ है कि किसी लड़की के साथ उसकी इच्छा और सहमति (दोनों) के बगैर शारीरिक संबंध बनाना रेप है। इस कानून की एक खासियत यह भी है कि अगर कोई लड़की किसी पर रेप का आरोप लगाए तो खुद को बेकसूर साबित करना आरोपी का काम है। यही वजह है कि अक्सर इस कानून के दुरुपयोग की खबरें भी सामने आती हैं। यह फिल्म कानून की इसी धारा के इर्द-गिर्द बुनी गई कहानी के बरअक्स हमारे आसपास के समाज में झांकने और उसे बेपर्दा करने का काम भी करती है।

अपने यहां के पुलिस, मेडिकल और अदालती सिस्टम में किसी रेप-पीड़िता को जिस तरह से बार-बार ज़लालत का सामना करना पड़ता है, उसे सिर्फ यह फिल्म बारीकी से दिखाती है, बल्कि महसूस भी कराती है और इस तरह से महसूस कराती है कि आप को घिन्न आए। घिन्न तो आपको इस फिल्म के दौरान कई बार आती है। तब, जब एक नामी वकील कहता है कि हम न्याय का नहीं, कानून का कारोबार करते हैं। तब, जब आप देखते हैं कि कैसे कानून की रक्षा करने वाले लोग उसे बेचने के लिए तैयार खड़े दिखते हैं। तब भी, जब विश्वास टूटते हैं, भावनाओं से खिलवाड़ होता है और आप सोचते हैं कि यह हम किस समाज में रह रहे हैं। और यहीं आकर यह फिल्म अपने मकसद में कामयाब होती है।

फिल्म शुरू होने के चंद ही मिनटों में अदालत में पहुंच जाती है। कोर्ट-रूम ड्रामा बना पाना फिल्मी लिहाज़ से  काफी मुश्किल माना जाता है। हाल के बरसों में दर्शकों फिल्मकारों में आई चेतना के बाद अब इस किस्म की फिल्मों में फिल्मीट्विस्ट या ताली पिटवाने वाले तारीख पे तारीखकिस्म के संवाद भी नहीं चलते। इस फिल्म की खासियत यही है कि यह कहानी को बड़े ही कायदे से, बड़ी ही कसावट के साथ, पूरी कानूनी भाषा में दिखाती-बताती है लेकिन कहीं भी आपको बोर नहीं होने देती, आपको सीट से नहीं उठने देती, पल भर के लिए भी आपका ध्यान कहीं भटकने नहीं देती। अदालत के सीन तो इस कदर कसे और बंधे हुए हैं कि लगता है कि आप थिएटर में नहीं कोर्ट-रूम में ही बैठे हुए हैं। फिल्म की एक खासियत यह भी है कि यह सिर्फ रेप के एक केस भर को ही नहीं दिखाती बल्कि उससे जुड़े तमाम दूसरे पहलुओं पर भी नज़र रखती है। रेप-पीड़िता के घरवालों, आरोपी की पत्नी और यहां तक कि केस लड़ रहे वकील की पत्नी की सोच के साथ-साथ यह सुनवाई कर रहे जजों तक के ज़ेहन में उतरती है और फैसला सुनाने से पहले के उनके असमंजस को इस कदर विश्वसनीय ढंग से सामने लाती है उनकी जगह पर आप खुद को महसूस करने लगते हैं। फिल्म का अंत आपको सोचने पर मजबूर करता है और फिल्म को एक ऊंचाई देता है।

मनीष गुप्ता की कसी हुई पटकथा अगर इस फिल्म की जान है तो ज़रूरत से ज़्यादा अंग्रेज़ी संवाद इसकी कमज़ोरी। ये संवाद हिन्दी में भी हो सकते थे। पर्दे पर हिन्दी सबटाइटिल देने का आइडिया क्या किसी को नहीं आया? इससे पहले बी.. पासबना चुके अजय बहल के निर्देशन में पैनापन और परिपक्वता दिखती है। चरित्र विश्वसनीय तरीके से गढ़े गए हैं जिन्हें कलाकारों ने निभाया भी कायदे से है। अक्षय खन्ना कई जगह बेवजह सपाट लगे। ऋचा चड्ढा बड़ी ही सहजता से अपने किरदार में समा गईं। जज बनीं कृतिका देसाई को बरसों बाद बड़े पर्दे पर देखना सुखद लगा। राहुल भट्ट, मीरा चोपड़ा, श्रीस्वरा, संध्या मृदुल, किशोर कदम, दिव्येंदु भट्टाचार्य जैसे तमाम कलाकार जंचे। फिल्म में किसी गीत का होना इसे और असरदार बनाता है।

यह फिल्म उन दर्शकों को ज़्यादा पसंद आएगी जिन्हें पर्दे पर रंगीनियों से ज़्यादा वास्तविकता देखना पसंद है। सच और सच के पहलुओं को कायदे से दिखाने के लिए इस फिल्म की तारीफ ज़रूरी है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

9 comments:

  1. तह तक जाने का काम तो आपने भी कर दिखाया है वकील बाबू

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  2. क्या बात है पा' जी। जल्द ही समय निकालते हैं। बाकी आपका अंदाज़ के बयां तो निराला है ही। 💖

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  3. as usual behtareen review. english bahut use hone ki wajah se aam darshak bore ho jayenge.

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