-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
ज़िंदगी से हार मानने को तैयार अपने बेटे को हौसला देने के लिए एक बाप उसे अपने कॉलेज और होस्टल के दिनों की कहानी सुना रहा है। धीरे-धीरे इस कहानी के 25-26 साल पुराने किरदार भी आ जुटते हैं जो उसे बताते हैं कि आज कामयाबी के आसमान पर बैठे ये लोग कभी कितने बड़े लूज़र थे और कैसे इन्होंने मुश्किलों का सामना किया।
लूज़र्स के विनर्स बनने की कहानियां हमारी फिल्मों में अक्सर आती रहती हैं। जीतने के लिए जान लगा देने की कहानियां भी कम नहीं आतीं। अपनी हार को जीत में बदल देने वाले किरदार भी फिल्मों में बहुतेरे मिल जाएंगे। अंडरडॉग कहे जाने वाले लोगों की जीत के किस्से भी हम अक्सर देखते रहते हैं। तो फिर इस फिल्म में नया क्या है?
नया है इस फिल्म का मैसेज। दरअसल यह फिल्म न तो जीतना सिखाती है और न ही हार को बर्दाश्त करना। यह असल में जूझना सिखाती है। और जब इंसान जूझने पर उतर आए तो फिर हार या जीत के ज़्यादा मायने रह नहीं जाते।
अपनी पिछली फिल्म ‘दंगल’ के ही लेखकों के साथ मिल कर डायरेक्टर नितेश तिवारी ने इस फिल्म को लिखा है जिसमें ‘जो जीता वही सिकंदर’, ‘3 ईडियट्स’,
‘स्टुडैंट ऑफ द ईयर’ साफ-साफ और ‘फुकरे’,
‘अक्टूबर’ धुंधली-सी नज़र आती हैं। मैंने कहा न कि फिल्म में नया कुछ नहीं है। फिर भी यह फिल्म एक उम्दा कहानी कहती है, उसे बेहतरीन तरीके से कहती है और शुरू होने के कुछ ही मिनटों में आपको ऐसा बांध लेती है कि आप इसके संग हंसते-हंसते चलते-चले जाते हैं। और हां, मैसेज के अलावा यह आपको ढेर सारा मनोरंजन देती है और आंखों में बहुत सारी नमी भी। बस, यही आकर यह ज़रूरी फिल्म भले न बने, ज़ोरदार फिल्म ज़रूर बन जाती है।
बतौर निर्देशक नितेश की तारीफ होनी चाहिए। कहानी बीते कल और आज में बार-बार आती-जाती है और इस तरह से दोनों को जोड़ती है कि आप बंधे-से रह जाते हैं। हालांकि फिल्म युवा पीढ़ी पर कामयाबी पाने और अव्वल आने के दबावों की बात भी करती है लेकिन उससे ज़्यादा यह इस बात पर ज़ोर देती है कि हमें खुद को और अपने बच्चों को हार स्वीकार करने के लिए भी तैयार रखना चाहिए। फिल्म के चुटीले संवाद इसकी जान हैं और होस्टल-लाइफ की इसकी कॉमिक सिचुएशंस इसका दमखम। फिल्म देखते हुए मुझ जैसे लोग इस बात पर अफसोस कर सकते हैं कि वे कभी होस्टल नहीं गए। काम लगभग सभी का बहुत अच्छा है। वरुण शर्मा अपनी अदाओं से बाकी सब से ऊपर रहे। कुक बने नलनीश नील को और ज़्यादा सीन मिलते तो वह और हंसा पाते। प्रतीक बब्बर को एक्टिंग छोड़ने पर गंभीरता से विचार कर लेना चाहिए। गाने बढ़िया हैं और कहानी में जगह बनाते हैं।
किशोरों, युवाओं और उनके माता-पिता को एक साथ बैठ कर यह फिल्म देखने में थोड़ी झिझक होगी। लेकिन इन्हें ये फिल्म देखनी ज़रूर चाहिए,
भले ही अलग-अलग। फिल्म का अंत रोमांचक है जिसे आप दम साधे, मुट्ठियां बांधे देखते हैं। उस दौरान आपकी आंखें डबडबाएं तो हैरान मत होइएगा। सिनेमा कई बार यूं भी दिल छूता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Phenomenal ❣️ very true
ReplyDeleteशुक्रिया...
DeleteBest
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteदेखनी ही पड़ेगी 😀
ReplyDeleteजरूर...
DeleteWah...Kamal ek bar fir
ReplyDeleteशुक्रिया...
DeleteVery nice sir.
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deletesupreb as always sir! pratik babbar wala kamala tha! haha mazaa aagaya
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteदेख आए ,
Deleteजैसे आपके रिव्यूज थे एग्जैक्टली वैसी ही पिक्चर निकली ।
वैसे भी स्कूल फ्रेंड्स के साथ जुड़े होने और एलुमनाई एसोसिएशन के साथ काम करने की वजह से मुझे यह पिक्चर बहुत ही जानदार लगी ।।। स्कूल लाइफ से अब तक की लाइफ के हुए हुए एक्सपीरियंस को दोबारा नजरों के सामने घूम दिया
शुक्रिया भाई साहब...
Deleteक्या स्टोरी थी इस फिल्म को देख कर कॉलेज के दिन याद आ गए 😍😍😍😘😘😘 आप ने एक बात सच्ची बोली हम सब सफलता के बाद का सारा प्लान बन लेते है पर अगर हम फैल हो जाते है तो उस के बाद हमे पता नही होता की क्या करना। है दुःख क्या होता ह ये उस फैल हुये स्टूडेंट से पूछो 😖😖😞😞 इस के मन में क्या बीत रही है। 3idiot ke filmy ke baad es filmy meri life ki sb se achi movies h 😍😍😍😍😍
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