Friday 13 September 2019

रिव्यू-किसी ‘सायर’ की ‘गज्जल’-ड्रीम गर्ल

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
एक लड़का है जो लड़की की आवाज़ निकाल सकता है। कोई और नौकरी नहीं मिलती तो एक फ्रेंडशिप कॉल सेंटर में पूजा बन कर लोगों का दिल बहलाता है और उनका बिल बढ़ाता है। पर उलझनें तब बढ़ती हैं जब उसके दीवाने उससे शादी करने और उसके लिए मरने-मारने पर उतर आते हैं। अब यह सच वह किसी को बता नहीं सकता कि कइयों की ड्रीमगर्ल यह पूजा असल में कोई दूजा है।

हिन्दी फिल्में अब हटकेवाले विषयों पर काफी ज़्यादा और खुल कर बात करने लगी हैं। कल तक जिन टॉपिक्स को टैबू माना जाता था अब फिल्म वाले चुन-चुन कर उनके इर्द-गिर्द कहानियां बुन रहे हैं। आयुष्मान खुराना ऐसी फिल्मों के लिए मुफीद चेहरा बन चुके हैं। लेकिन दिक्कत तब आती है जब इन कहानियों को कहने में गहरी रिसर्च नहीं की जाती, गहराई से मेहनत नहीं होती और नतीजे के तौर पर ऐसी कच्ची-पक्की फिल्में सामने आती हैं जिनमें सब कुछ होते हुए भी लगता है कहीं नमक कम रह गया तो कहीं आंच हल्की पड़ गई। अगर चीज़ें सधी रहें तो नतीजा विकी डोनरऔर बधाई होहोता है नहीं तो शुभ मंगल सावधानऔर ड्रीम गर्ल’, जो अच्छी होते हुए भी गाढ़ी नहीं होती हैं।

इस फिल्म की कहानी को फैलाने में जो स्क्रिप्ट खड़ी की गई है उसमें कच्चापन है। लोग पूजा के ही दीवाने क्यों हुए, बरसों से वहां काम कर रही बाकी लड़कियां वहां क्या सिर्फ मटर छीलने और स्वेटर बुनने ही आती थीं? फिल्म बार-बार कहती है कि दुनिया में बहुत अकेलापन है इसीलिए लोग फोन फ्रेंडशिप करते हैं। लेकिन इस बात को फिल्म स्थापित नहीं कर पाती क्योंकि पूजा के ज़्यादातर दीवाने अकेले हैं ही नहीं। किरदारों का ठीक से गढ़ा जाना फिल्म का स्तर हल्का बनाता है तो वहीं कुछ एक सीक्वेंस बेमतलब के लगते हैं। जब बूढ़े मियां पूजा से मिल कर दिल तुड़वा कर लौट आए तो मामला खत्म होना चाहिए था लेकिन उनका बेटा उन्हें और भड़का रहा है कि जाओ, शादी कर लो पूजा से।

इस फिल्म से पहली बार निर्देशक बने राज शांडिल्य कॉमेडी सर्कसके सैंकड़ों एपिसोड लिख चुके हैं इसलिए उन्हें इतना तो पता है कि कहानी में नमक-मसाला कैसे लगाना है लेकिन दिक्कत यही है कि यह अच्छी-भली कहानी नमक-मसाले में लिपट कर चटपटी तो बन गई, पौष्टिक नहीं बन पाई। इसे देखते हुए आप एन्जॉय तो करते हैं लेकिन यह दिल को नहीं छूती। घिसे-पिटे कॉमिक-पंचेस को भौंडे बैकग्राउंड म्यूज़िक में लपेट कर दर्शकों को हंसाने की कोशिशें कुछ एक जगह ही रंग लाती हैं, बाद में दोहराव का शिकार होकर बोर करने लगती हैं। क्लाइमैक्स में जाने भी दो यारोंकी तरह भगदड़ हो जाती तो मज़ा कई गुना बढ़ जाता।

आयुष्मान खुराना, मनजोत सिंह, राजेश शर्मा, विजय राज़ वगैरह का काम बढ़िया है तो वहीं नुसरत भरूचा को कायदे का रोल ही नहीं मिल सका। सब पर छाने का काम किया अन्नू कपूर ने। खासतौर से स्थानीय ब्रज बोली पकड़ने में उनकी मेहनत झलकती है। गाने फिल्म के मिज़ाज के मुताबिक चटपटे हैं-भले ही मथुरा की कहानी में पंजाबी गाना आपको मिसफिट लगे तो लगे-हम तो बेमकसद पंजाबी गाने भी परोसेंगे और बेवजह दारू के सीन भी।

फिल्म में हरियाणवी पुलिस वाले के किरदार में विजय राज़ अक्सर सायरीसुनाते हैं। उनके सेरदिल को तो भाते हैं, दिमाग को नहीं। ऐसी ही यह फिल्म भी है-वन टाइम वॉच या कहें कि टाइम पास किस्म की।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

8 comments:

  1. बहुत सही लिखा है आपने। मसाला यानी पंचेज़ है लेकिन पोष्टिक नहीं यानी निम्न स्तरीय स्क्रीनप्ले के चलते फ़िल्म मज़ेदार नहीं बन पाई। एक बार आप इसे आयुष्मान की वजह से (पुराने न
    बेहतरीन फिल्मो के रिकॉर्ड की वजह से) देख सकते है इसके अलावा कोई कारण नहीं।

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  2. बहुत सही लिखा है आपने। मसाला यानी पंचेज़ है लेकिन पोष्टिक नहीं यानी निम्न स्तरीय स्क्रीनप्ले के चलते फ़िल्म मज़ेदार नहीं बन पाई। एक बार आप इसे आयुष्मान की वजह से (पुराने
    बेहतरीन फिल्मो के रिकॉर्ड की वजह से) देख सकते है इसके अलावा कोई कारण नहीं।

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  3. जब सब राज़ यही खुल गए तो अब तो पैसा खर्च करना गलत होगा😃😃

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  4. अब मथुरा का नाम जुड़ा है तो देखना तो बनता है 😀

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  5. हमारी इंडस्ट्री के लिए ये अच्छा संकेत है कि नए लेखक और निर्देशक इस तरह के कंटेंट ला रहे है।
    दूसरी बात आयुष्मान की किस्मत है कि ऐसी फिल्म उसे मिल जाती है या फिर वो जान बूझकर ऐसी फिल्म साइन करते है

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  6. बेहतरीन रिव्यू, फिल्म में मथुरा की भाषाशैली सुनने में आनंद आता है।

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  7. आपने थोड़ी ज्यादा खिंचाई की है फिल्म की। ये फिल्म एक प्रासंगिक विषय उठाती है लोगों के अकेलेपन का। लोग भले ही दूसरों के साथ रह रहे हों, लेकिन वे अपनी प्रॉब्लम्स शेयर नहीं कर पाते हैं। पूजा के जरिए हल्के-फुल्के तरीके से गंभीर विषय को उठाया गया है। अगर मैं समीक्षक की दृष्टि से ना देखूं तो फिल्म मुझे काफी अच्छी लगी, साइड रोल वाले किरदारों ने भी खूब हंसाया।

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  8. I was also thinking that this film should be like the name. But, thanks for giving the real picture here.

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