-गति उपाध्याय... (Featured in IMDb Critics Reviews)
एक विधवा,
एक अछूत और एक किन्नर के प्रति तरह-तरह के पूर्वाग्रहों
से जकड़े समाज की क्रूरता पर बनी है यह फिल्म। कहानी में एक चौथी अघोषित नायिका भी
है-इंस्पेक्टर राजा रघुवंशी की पत्नी,
जो अन्याय का मौन प्रतिकार तो शुरू से करती है, अंत
में उसका मुखर होना दर्शकों को अवाक कर देता है।
एक छोटी अछूत अनाथ बच्ची हर किसी को बचाती, हंसाती
और स्कूल जाने के सपने के साथ बनारस के घाट पर दिखाई पड़ती है। उसका बचपन बचा लेने
के लिए एक थर्ड जेंडर पुलिस वालों के शोषण का शिकार होता है, जबकि
उसे नहीं पता कि वो कब तक उसे बचा पाएगा?
समझ नहीं आता कि वो किन्नर शोषित है या कि शोषक पुलिस
वाला।
इस फिल्म को देखते समय दर्शक महसूस करेंगे कि फिल्म
का प्रधान नायक है वात्सल्य, करुणा और मैत्री जो अब एक अंधी दौड़ का हिस्सा होने के कारण
आम सामर्थ्यवान लोगों की पहुंच से दूर होता जा रहा है। फिल्म सिद्ध करती है कि
प्रेम व्यापार नहीं कि जिसे जो मिले बदले में वही लौटाए। और न ही वात्सल्य किसी
जेंडर की विरासत। समाज से तीनों को मिली तो सिर्फ घृणा ही है। हालांकि उन तीनों के
घृणित बनने में परिस्थितियों के अलावा उन तीनों का अपना कोई योगदान नहीं होता।
आस्थावान दर्शक इसे पूर्व जन्म का फेर भी कह सकते हैं क्योंकि संभ्रांत समाज में
परिस्थितियों को दोष देने से बेहतर होता है निर्दोष लोगों को दोष देना, उनसे
घृणा करना।
फिर भी ये तीनों लौटा रहीं है प्रेम, वात्सल्य
और दोस्ती। प्रेम के कुपात्रों को यही
नागवार लगता है कि जो प्रेम हम तक नहीं पहुंचा,
उसे हम क्यों न मिटा दें। आम दर्शकों की आंखों देखे
षड्यंत्र और साजिशों का नाम है यह फिल्म ‘द लास्ट कलर’ जो बहादुरी से जीना और गलत
का प्रतिकार करना सिखाती है।
“एक दिन एक छोटे-से चांद ने बड़े से सूरज को ग्रहण लगा दिया।
सूरज तो रोज़ ही जीतता है, पर चांद का भी तो दिन आता है...“
“जब हमने भूरे (कुत्ते के बच्चे) को प्यार किया तो वह रोने
लग गया। उसे प्यार की आदत नहीं होगी न...“
विभव श्रीवास्तव के ऐसे हृदयस्पर्शी संवादों से
लबरेज़ है फ़िल्म।
विधवा और बच्ची के मन में पढ़ने की छटपटाहट दिखाती यह
फिल्म बताती है कि सब कुछ लिखा तो रखा है पर पढ़ा कैसे जाए? अधिकार
भी लिख दिए गए हैं पर जिसे लिखना-पढ़ना ही नहीं आता उनके लिए अधिकारों के क्या
मायने...!
समाज का स्वभाव है प्यार को मिटाना, भेदभाव
करना, साज़िशें करना। पर मैत्री का गुण है विश्वास करना, संघर्ष
सिखलाना। इन निरीह लोगों के पास हारने के लिए कुछ नहीं होता इसीलिए शायद इनकी
दोस्ती, उम्मीद और प्यार कभी खत्म नहीं होते।
एक सीन में जब बच्ची पूछती है -“मैं तुम्हें मां कहूँ?“
इस निःशब्द दृश्य के भावों के फिल्मांकन के लिए विकास
खन्ना के विज़न को सराहा जाना चाहिए।
अंत में बचने-बचाने के क्रम में छोटी बच्ची की
नूर-नूर, और नूर (नीना गुप्ता)का छोटी-छोटी की करुण, कातर
पुकार बहुत देर तक कानों में गूंजती रहती है कि क्यों ये किसी भगवान या बचाओ की
गुहार नहीं लगातीं? मुमकिन है इन्हें किसी से बचा लिए जाने की उम्मीद ही नहीं
रही हो शायद...!
‘हर हर गंगे...’ गीत में बनारस और गंगा की अद्भुत अलौकिक छवि
महसूस की जा सकती है। नीना गुप्ता के नृत्य में बिरजू महाराज की छवि दिखाई पड़ती है।
अभिनय के लिहाज़ से सबने अपना सर्वश्रेष्ठ दे कर
चौंकाया ही है, चाहे किरदार महज़ दो मिनट का ही क्यों न हो। कास्टिंग को लेकर
दर्शक हैरान भी होता है कि इतने सच्चे और जीवंत चरित्र। खलचरित्रों से तो घृणा ही
फूटती है चाहे वो राजा रघुवंशी हों,
उसकी विधवा मां या घाट का पान वाला या फिर आश्रम की
विधवा बुढ़िया, जो ख़ुद विधवा होकर विधवा नूर से भेदभाव,
घृणा और उसका शोषण करती है।
विधवाओं के लिए रंग-बेरंग पर निर्देशक का ट्रीटमेंट
कमाल का है। पेशे से न्यूयॉर्क में शेफ लेखक-निर्माता-निर्देशक विकास खन्ना
दर्शकों तक सारे स्वाद पहुंचाने में क़ामयाब रहें हैं।
फरवरी 2020 में ऑस्कर तक जा पहुंची मात्र डेढ़ घंटे की यह फिल्म अमेज़न
प्राइम पर आई है। साथ ही यह यू-ट्यूब पर भी उपलब्ध है।
(गति उपाध्याय ने एम.बी.ए. किया है। बैंकर भी रही हैं।
अंदर की लेखिका की आवाज़ पर सब छोड़छाड़ कर अब सिर्फ लेखन करती हैं। ढेरों लेख, समीक्षाएं और कविताएं लिख-छप चुकी हैं।)
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