Sunday 14 March 2021

वेब-रिव्यू : सपनों के शहर में जूझतीं ‘बॉम्बे बेगम्स’

-प्रियंका ओम... (Featured in IMDb Critics Reviews)
नाम ही काफी था अपने पास खींच कर बिठा लेने के लिए।लिपस्टिक अंडर माई बुर्कावाली डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव की बनाई और नेटफ्लिक्स पर आई इस सीरिज़बॉम्बे बेगम्सकी कहानीस्त्री संचालितअपने नाम से ही मुखर थी, फिर पूजा भट्ट और शाहाना गोस्वामी का जुड़ाव इसे और सुस्पष्ट करता है। रिव्यू की शुरुआत खुद की ही कहानीइमोशनके एक संभाषण से करना चाहूंगी जहां एक स्वांत सुखाय बनी कॉल-गर्ल कॉर्पोरेट में काम करने वाली स्त्रियों के मुत्तालिक कहती है, “पैसा, पॉवर और प्रमोशन ऐसी बहुत-सी जिजीविषाएं हैं जिनके लिए उन्हें अपनी आत्मा को मारना पड़ता है और ज़िंदगी भर ढोते हैं सिर्फ शरीर...’’ और कहानी के अंत में वह यह भी कहती है, ‘‘मैं उनसे बेहतर हूं।’’
 
हालांकि महानगर के कॉर्पोरेट जगत से दूर रहने वालों के लिए यह एक वाहियात सीरिज़ हो सकती है लेकिन कितने ही बहानों से भागो, तब भी एक दिन सच की कड़वाहट जीवन के स्वाद को कसैला कर ही देती है। इस सीरिज़ को पूजा भट्ट के फैन उनके कमबैक के तौर भी देख सकते हैं।
 
छह एपिसोड की यह सीरिज़ चार स्त्रियों और एक टीन ऐज बच्ची की तमाम बाधाओं के दरम्यां प्यार, दर्द, यौन-अन्वेषण और स्वयं की खोज की यात्रा है। कहानी की शुरूआत इस बच्ची शाय ईरानी (आद्या आनंद) की इस प्रस्तावना से होती है, “कुछ महिलाएं शासन करने के लिए पैदा होती हैं, उन्होंने अपने सपने पूरे करने के लिए खून बहाया है और वे दूसरों से उनके लिए खून बहाने की उम्मीद रखती हैं। मुझे नहीं लगता मैं उस तरह की रानी बनना चाहती हूं बल्कि मेरे भीतर इसके विरुद्ध एक विद्रोह पलता है।चित्रकारी करते हुए शाय का चिंतनशील कथात्मक एकालाप फिल्म की चारों मुख्य स्त्रियों की कहानी के साथ-साथ उसकी अपनी यात्रा को भी आपस में जोड़े रखता है।
 
पहली मुख्य चरित्र रानी (पूजा भट्ट) रॉयल बैंक मुंबई की सीईओ है। एक ऐसा पद जिस पर बने रहने के लिए उसके बौद्धिक संघर्ष और दो सौतेले बच्चों-जोरावर और शाय के साथ सामंजस्य की जद्दोज़हद। दूसरी किरदार फातिमा वारसी (शाहाना गोस्वामी) जो मन और शरीर दोनों को अपने पति की बच्चे की चाहना में धकेलते-धकेलते उससे दूर हो जाती है। तीसरी छोटे शहर से आई एक अतिमहत्वाकांक्षी मामूली एम्पलॉई, लेकिन बड़े शहर के कॉर्पोरेट जगत के तौर-तरीकों से कत्तई अनजान, अपनी गलतियों में उलझी आयशा अग्रवाल (प्लविता बोरठाकुर) और चौथी बार-डांसर से सैक्स-वर्कर बनी लिली (अमृता सुभाष) है।
 
तमाम दृश्यों में कसी हुई साड़ी पहने पूजा भट्ट सीईओ के किरदार में बेहद खूबसूरत और प्रभावी लगी हैं। पूरी सीरिज़ में कम से कम शब्दों में उन्होंने अधिक कहा है। लेखक के नज़रिए से देखें तो कोट करने लायक डायलॉग्स से कसी हुई कहानी पीछे जाकर फिर से सुनने को पुश करती है। हालांकि उच्चवर्गीय क्लास में बोली जाने वाली अंग्रेज़ी के संवाद आपका माथा घुमा सकते हैं। सिनेमैटोग्राफी और बैकग्राउंड स्कोर सीरिज़ की गंभीरता को बनाए रखने में सफल रहे हैं। अनगिनत सैक्स-दृश्यों को छोटा-छोटा ही रखा गया है।
 
मल्टीपल शारीरिक संबंध, सिगरेट, शराब और गालियां सीरिज़ में बेहद आम हैं। सच पूछिए तो स्त्री से जुड़ा कोई भी मुद्दा इस सीरिज़ में अछूता नहीं रहा है।मी टूके बारे में अक्सर एक प्रश्न पूछा गया कि-इतने दिन चुप क्यों रही? यह सीरिज़ इस प्रश्न का जवाब भी बेहद स्पष्ट तौर से देती है। कुछ माह पूर्व आई सीरिज़तांडवकी भर्त्सना की गई थी कि सीरिज़ में तमाम स्त्रियों को देह के रास्ते सफलता की सीढ़ी चढ़ते हुए दिखाया गया, गोया स्त्री की असल क्वालिफिकेशन उसका शरीर ही हो। यह सीरिज़ इसका भी खंडन करती दिखाई देती है। आईआईएम से पास आउट फातिमा को कहीं भी दैहिक समझौता करते हुए नहीं दिखाया गया जबकि आयशा अपनी मूढ़ता के कारण सैक्सुअल असाल्ट में फंसती है।
 
रानी को बार-बार अपना चेहरा धोते दिखाया गया है। फातिमा कहती है-शायद वह मेनोपॉज़ के करीब है। रानी इससे इंकार करती है और अंत में खुलासा करते हुए शाय से कहती है कि अपने कैरियर के शुरूआती दौर में किए गए शारीरिक समझौते की याद से वह आज भी असहज हो जाती है। यह सीरिज़ परोक्ष रूप से संदेश देते हुए रानी से आगे कहलवाती है-तुम काबिल हो तो तुम्हें समझौते करने की कोई ज़रुरत नहीं। 
 
मुंबई में डांस-बार बंद हो जाने से मजबूरी में देह व्यापार में आई लिली इस दलदल से बाहर निकलना चाहती है, अपने बेटे के माथे से रंडी का बेटा का टैग हटाना चाहती है, उसे पढ़ा-लिखा कर इंजीनियर बनाना चाहती है और अंततः सफल भी होती है। हालांकि इस सफलता के लिए वह रानी को ब्लैकमेल करने का रास्ता अपनाती है।
 
प्रेम, धोखा, टूटन और शारीरिक संबंधों से लबरेज़ स्त्रियों की कहानी कहती यह सीरिज़ एक बारह साला बच्ची की मानसिक स्थिति दर्शाने में नाकामयाब रहती है।
 
सीरिज़ के अंत में आयशा को अपना कमरा दिलवाते हुए अंग्रेज़ी लेखिका वेर्गिनिया वूल्फ को कोट करते हुए संवाद आता है-“खुद के कमरे से ज़्यादा कीमती कुछ भी नहीं है इसलिए कि हमारे घाव भर सकें, हमारी आत्मा निखर सके।
(
रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सीरिज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(प्रियंका ओम इस्पात नगरी जमशेद पुर की रहने वाली हैं। फिलहाल भारतभूमि से परे पूर्वी अफ्रीका के देश तंजानिया में रहती हैं और हिन्दी में फौलादी लेखन करती हैं। उनके दो कहानी संग्रहवो अजीब लड़कीऔरमुझे तुम्हारे जाने से नफरत है चुके हैं।)

No comments:

Post a Comment