कोरियाई फिल्में अब हिन्दी वालों को ज्यादा भा रही हैं। 2013 में आई दक्षिण कोरियाई फिल्म ‘मोंटाज’ का रीमेक ‘तीन’ एक सस्पैंस फिल्म है। एक बूढ़ा आठ साल पहले किडनैप हुई और फिर मारी गई अपनी नातिन के किडनैपर की खोज में अभी भी पागलों की तरह लगा हुआ है जबकि पुलिस इस केस से पल्ला झाड़ चुकी है और इस केस को देख रहा अफसर पुलिस की नौकरी छोड़ अब चर्च में पादरी बन चुका है। लेकिन नाना का कहना है कि वह इंसाफ मिलने तक चुप नहीं बैठेगा। अचानक शहर में एक और बच्चा किडनैप होता है। बिल्कुल उसी स्टाइल में और उसके बाद के तमाम वाकये भी वैसे ही घटते हैं जो आठ साल पहले हो रहे थे। आखिर राज़ खुलता है और सच सामने आ ही जाता है।
एक सस्पैंस फिल्म में आमतौर पर रफ्तार,
रोमांच, तेज़ी से बदलती-घटती घटनाओं का बोलबाला होता है। लेकिन यह फिल्म कुछ हटके है। यहां कोलकाता शहर अपनी धीमी गति के साथ मौजूद है। मुख्य पात्र एक सुस्त रफ्तार बूढ़ा है जो अपने खटारा स्कूटर को ज़बर्दस्ती घसीटता रहता है। फिल्म की स्पीड भी धीमी है। बल्कि कई जगह तो इतनी ज़्यादा धीमी है कि उकताहट होने लगती है। खैर, इन सबसे भी आप एडजस्ट करलें मगर सस्पैंस फिल्म में जब रहस्य खुलता है तो एक झटका-सा लगता है। यहां वैसा भी नहीं हो पाया और ‘शॉक-वैल्यू’ की यह कमी इस फिल्म को एक करारा झटका देने के लिए काफी है। पर्दे पर सच सामने आने से पहले ही दर्शक को सच्चाई पता चल जाए तो सस्पैंस फिल्म देखने का सारा मज़ा ही खत्म हो जाता है और यहां यही हुआ है।
अमिताभ बच्चन अपने पूरे कद के साथ मौजूद हैं। वह बताते हैं कि उनकी मौजूदगी कैसे दूसरों के लिए अभिनय का सबक बन जाती होगी। नवाजुद्दीन सिद्दिकी और विद्या बालन के किरदार छोटे हैं,
कमज़ोर हैं और पुख्ता स्क्रिप्ट के अभाव में ये दोनों ही पूरी मेहनत करने के बावजूद अपेक्षित असर छोड़ पाने में नाकाम रहे हैं। रिभु दासगुप्ता का निर्देशन अच्छा है। कोलकाता को एक किरदार बनाने की उनकी कोशिश रंग लाती है। कहानी को एक अलहदा ढंग से कहने की उनकी शैली भी लुभाती है। लेकिन स्क्रिप्ट की कमज़ोरी और सुस्त गति फिल्म को ऊपर नहीं उठने देती। कई जगह तो ऐसा भी लगता है कि आप विद्या बालन वाली ‘कहानी’ से बच गए माल को एक अलग किस्म के छौंक के साथ देख रहे हैं।
कुछ अलग हट कर देखना चाहें,
अमिताभ की उम्दा एक्टिंग को सराहना चाहें,
तो यह फिल्म देखें। हां,
फिल्म का नाम ‘तीन’ क्यों है,
इसे स्पष्ट कर पाने में तो निर्देशक नाकाम रहे ही हैं,
इसे ‘Te3n’ क्यों लिखा गया है, इसका भी कोई कारण नहीं है।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(नोट-मेरा यह रिव्यू इस फिल्म की
रिलीज़ के समय किसी पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था। अब यह फिल्म नेटफ्लिक्स पर देखी जा सकती
है।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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