एक सीन देखिए-बिहार से आकर पंजाब के खेतों में काम कर रही मज़दूर (आलिया भट्ट) कहती है-‘हमने कभी बीड़ी नहीं पिया और पंजाब में इन लोगों ने हमको सुई (नशे) का आदत लगा दिया।’ इस पर नशा छोड़ कर सुधरने की कोशिश कर रहा रॉकस्टार टॉमी सिंह (शाहिद कपूर) सवाल करता है-‘तो फिर छोड़ क्यों नहीं देती?’ सवाल के बदले वह पूछती है-‘क्या,
पंजाब या सुई?’
जवाब मिलता है-‘एक ही बात है...!’
यह इस फिल्म की कहानी का सच है जो बताता है कि कैसे देश के सबसे अमीर सूबों में गिने जाने वाले पंजाब के गबरू जवान नशे के शिकार होकर परिवार और समाज पर बोझ हुए जा रहे हैं। कैसे यह पांच दरियाओं की धरती नशे का पर्याय बन चुकी है। और यह भी कि अगर आपको नशा छोड़ना है तो आपको यह जगह छोड़नी होगी क्योंकि यहां तो हर जगह नशे का राज है।
फिल्म पर आरोप लग सकता है कि यह नशे को ग्लैमराइज़ कर रही है या यह पंजाब में नशे समस्या को बढ़ा-चढ़ा कर दिखा रही है। लेकिन ऐसा नहीं है। पूरी कहानी में जहां भी नशे की बात है, उसके दुष्प्रभाव ही दिखाए गए हैं। और रही समस्या की बात,
तो वह हर जगह मौजूद है, सबकी नज़रों के सामने। लेकिन उसे देख कर भी अनदेखा किया जा रहा है क्योंकि समाज के ताकतवर और प्रभावी वर्ग के लोग इस धंधे से जुड़े हुए हैं। अगर ऐसा नहीं है तो क्या वजह है कि जिस पंजाब ने अपने यहां जड़ें जमा चुके आतंकवाद को उखाड़ फेंका वहां नशा नासूर बनने की हद तक पसर चुका है?
फिल्म में कई किरदार हैं। हर किरदार की अपनी कहानी है। नशे के कारोबार के अलग-अलग पक्ष इन किरदारों को करीब लाते हैं। इस दौरान जो सच्चाइयां पर्दे पर दिखती हैं, वे नई नहीं हैं मगर चुभती बहुत ज़ोर से हैं।
फिल्म में गालियां हैं और बहुत सारी हैं। लेकिन इनका इस्तेमाल बेवक्त नहीं है और न ही इनका आना अखरता है। सीन तो ऐसे कई सारे हैं जो अखरते हैं लेकिन वे तमाम सीन इस कहानी की ताकत हैं। उनका अखरना, चुभना ही बताता है कि समस्या का पानी असल में नाक तक आ पहुंचा है।
फिल्म की पूरी लुक में पंजाब है। किरदारों से लेकर उनकी बोली तक में पंजाब है। यह ‘सरबजीत’ वाला पंजाब नहीं है जहां शुद्ध हिन्दी बोली जा रही थी। बनाने वालों का दुस्साहस देखिए, पूरी फिल्म में पंजाबी ही बोली गई है और नीचे अंग्रेजी में सबटाइटल्स दिए गए हैं। आलिया का बिहारी गैटअप, संवाद अदायगी और अदाकारी मिल कर उनके अंदर की अभिनेत्री को ऊंचा मकाम देते हैं। शाहिद तो अपने हर किरदार में रम ही जाते हैं। दिलजीत दोसांझ सधे हुए रहे हैं तो करीना कपूर अपने साधारण रोल को कायदे से निभा गई हैं। डायरेक्टर अभिषेक चौबे करीना और दिलजीत की कहानी को थोड़ा छांट देते तो फिल्म में और कसावट ही आती। फिल्म कई जगह सुस्त होती है, उलझती है और कहीं-कहीं बनावटी भी हो जाती है। इसकी लंबाई कम करके इन कमियों को भी ढका जा सकता था। फिल्म का संगीत इसके मिज़ाज से मेल खाता है और माहौल बनाता है।
फिल्म खत्म हुई तो पीछे से एक युवती की आवाज आई-अच्छी है,
पर मज़ा नहीं आया। मज़े के लिए देखने जा रहे हों तो बीच रास्ते से लौट आइए,
यह फिल्म आपके लिए नहीं है। हां,
कुछ अच्छा देखना हो, एक कड़वी सच्चाई को जज़्ब करने का हौसला हो तो इसे मिस मत कीजिएगा।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
(नोट-17 जून,
2016 को रिलीज़ हुई इस फिल्म का मेरा यह रिव्यू उस समय किसी पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था। अब यह फिल्म नेटफ्लिक्स पर देखी जा सकती है।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
No comments:
Post a Comment