एक्शन और रोमांच से भरी एक ऐसी वेब-सीरिज़ जिसका मुख्य नायक एक सीक्रेट एजेंट हो और देश को बचाने के लिए जान हथेली पर लिए घूमता हो,
उस सीरिज़ का नाम ‘फैमिली मैन’...?
किसने सोचा होगा यह नाम?
और क्यों?
लेकिन इस सीरिज़ को देख चुके लोग जानते हैं कि श्रीकांत तिवारी नाम का यह नायक असल में कितना मजबूर फैमिली-मैन है जो एक तरफ अपने फर्ज़ और दूसरी तरफ अपनी फैमिली के प्रति ज़िम्मेदारियों के बीच इस कदर फंसा हुआ है कि उस पर तरस आता है। उसकी पत्नी उससे खुश नहीं है,
बेटी हाथ से निकली जा रही है,
लेकिन वह है कि देश और ड्यूटी के प्रति अपने जुनून में कमी नहीं आने देता। यह सीरिज़ दरअसल ऐसे ही जुनूनियों की कहानी है जो सामने न आकर हर दिन,
हर पल देश के लिए कहीं खड़े हैं,
किसी न किसी रूप में। एक जगह एजेंट जे.के. कहता भी है-‘करते नेता हैं और मरते हम हैं।’ तो श्रीकांत का जवाब होता है-‘हम किसी नेता के लिए नहीं,
उसके पद और उस पद की प्रतिष्ठा के लिए अपनी जान दांव पर लगाते हैं।’
‘फैमिली मैन’ के पिछले सीज़न में अपने परिवार के उलाहने सुनता रहा श्रीकांत अब एक प्राइवेट नौकरी कर रहा है और अपने से आधी उम्र के बॉस के ताने सुन रहा है। अब उसके पास परिवार को देने के लिए वक्त और पैसा,
दोनों हैं लेकिन उसकी फैमिली अब भी उससे खुश नहीं है। खुश तो अंदर से वह भी नहीं है। और एक दिन वह लौट आता है-उसी रोमांच की दुनिया में जहां उसे आनंद मिलता है,
संतुष्टि मिलती है। मगर उसे क्या पता था कि उसके इस रोमांच भरे काम की आंच उसके घर के भीतर जा पहुंचेगी। लेकिन देश को दुश्मनों से बचाने का उसका जज़्बा कम नहीं होता और आखिर वह जीतता भी है-अपनी नज़रों में और अपनों की नज़रों में भी।
राज, डी.के., सुपर्ण वर्मा, सुमन,
मनोज की टीम ने इस सीरिज़ की कहानी,
स्क्रिप्ट, संवादों आदि को लिखने और किरदारों को खड़ा करने में जो मेहनत की है,
वह पर्दे पर साफ झलकती है। अगर बहुत ज़ोर से दिमाग न झटकें तो आप इसकी कहानी में कोई बड़ी चूक नहीं निकाल सकते। इस किस्म की एडवेंचर्स, थ्रिलर कहानियों में नायकों-खलनायकों के बीच लगातार चूहे-बिल्ली का खेल चलना और अंत में बिल्ली का चूहे पर जीत हासिल करने का जो फार्मूला विकसित हो चुका है,
यह कहानी भी उस लीक से नहीं हटती और दो-एक जगह दो-एक पल को सुस्ता कर फिर रफ्तार पकड़ लेती है। कहीं कुछ अटकाव होता भी है तो चैल्लम सर जैसा कोई किरदार आकर उसे संभाल लेता है। लगातार दौड़ती पटकथा के बीच रोमांच, रोमांस, हंसी,
बेबसी के संवाद आकर अपना असर छोड़ते जाते हैं। बड़ी बात यह भी कि इस कहानी में किरदार जहां के हैं,
वहीं की भाषा में बात कर रहे हैं। सिनेमा को रिएलिस्टिक बनाने की दिशा में यह एक बड़ा और सार्थक कदम है जिसका स्वागत होना चाहिए। दूरियां कम करना भी तो सिनेमा का ही एक काम है।
लिखने वालों ने तो जम कर लिखा ही,
राज, डी.के और सुपर्ण वर्मा ने इसे कस कर निर्देशित भी किया है। नौ एपिसोड और निर्देशक की पकड़ कहीं भी ढीली न पड़े तो उन्हें सिर्फ बधाई ही नहीं,
तारीफें और पुरस्कार भी मिलने चाहिएं। एक सराहनीय काम इस कहानी के लिए किस्म-किस्म के किरदार गढ़ने और उनके लिए उतने ही किस्म के कलाकारों का चयन करने का भी हुआ। मुकेश छाबड़ा ने किरदारों से मेल खाते और वैसी ही पृष्ठभूमि से कलाकारों को चुन कर इस कहानी को जो यथार्थवादी लुक दिया है,
उससे यह सीरिज़ अन्य निर्माताओं के लिए एक बड़ी प्रेरणा बनने जा रही है।
लोकेशन, कैमरा, गीत-संगीत ने अगर इस कहानी को संवारा है तो सुमित कोटियान की चुस्त एडिटिंग ने इसे बखूबी निखारा है। और जब सारे तकनीकी काम अव्वल दर्जे के हों तो कलाकारों के लिए अपने किरदार को पकड़ना किस कदर सहज हो जाता है,
यह भी इस सीरिज़ को देख कर जाना जा सकता है। हर कलाकार, जी हां ‘हर’ कलाकार ने काबिल-ए-तारीफ काम किया है। इतना बढ़िया,
कि ये लोग ‘कलाकार’ नहीं ‘किरदार’ लगने लगते हैं। कुछ एक नाम लूंगा तो बाकियों के साथ अन्याय हो जाएगा।
यह सीरिज़ देखते हुए कभी आप हंसते हैं,
कभी भावुक होते हैं,
कभी हैरान तो कभी परेशान भी,
कभी आपकी मुट्ठियां भिंचती हैं,
उनमें पसीना आता है,
कभी दिल बैठता है और जब अंत में नायक अपने मिशन को पूरा कर धुंधलके में खोने लगता है तो मन करता है कि उसे सैल्यूट करें। आपके मन में उठते ये सारे भाव ही इस कहानी को सफल बनाते हैं। अमेज़न प्राइम पर मौजूद यह सीरिज़ अभी तक भी न देखी हो तो देख डालिए,
पहली फुर्सत में। और हां,
चाइनीज़ सीख लीजिए... अगले सीज़न में काम आएगी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सीरिज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
U make me to watch it u just amazing ❤
ReplyDeleteप्रतिष्ठा वाला जो डायलॉग था, वाकई उस जगह सही था...एक वो चाय में बिस्कुट वाला आउट चेल्लम सर का किरदार ये ऐसे फिलर थे कि मज़ा ही आ गया,
ReplyDeleteJk साला कॉकरोच है, कुछ भी सर्वाइव कर जाएगा।
जस्ट jk
चले! Jk
कुल मिलाकर लगातार देखने लायक सीरिज है, बस अगले में लेवल मेंटेन रहे।
बढ़िया, देख भी लिया
ReplyDeleteReally interesting
ReplyDeleteReally interesting
ReplyDeleteAbhi last episode nahi..dekha pr review paddne ke bad lgta hain..katham krna pdega...good luck
ReplyDeleteAll the best 😁
ReplyDeleteJaisa series waisa hi umda review
ReplyDeleteEk salute to apko bhi banta hai....thank u sir