-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
हिन्दी फिल्में लड़कियों को लगातार सशक्त दिखाने लगी हैं। ‘दंगल’ ने ‘म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के’ कहा था तो ‘पूर्णा’ अब ‘लड़कियां कुछ भी कर सकती हैं’ का नारा बुलंद कर रही है। इन दोनों फिल्मों की कहानी एक जैसी लग सकती है लेकिन दोनों में काफी फर्क है और सच यह है कि ‘पूर्णा’ में ज्यादा गहरी बातें कही गई हैं। बस, दिक्कत यह रही कि इस फिल्म को आमिर खान जैसा कोई बड़ा स्टार न मिल सका नहीं तो यह भी टिकट-खिड़की पर धमाल करती।
2014 में तेलंगाना (तब के आंध्र प्रदेश) की एक आदिवासी लड़की ने मात्र 13 साल 10 महीने की उम्र में दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट को फतह करके ऐसा करने वाली दुनिया की सबसे छोटी लड़की का खिताब हासिल किया था। यह फिल्म उसी लड़की पूर्णा मलावत की सच्ची कहानी पर बनी है।
एक छोटे-से गांव के बेहद गरीब घर की पूर्णा को घर वाले समाज कल्याण विभाग के स्कूल इसलिए भेजते हैं क्योंकि वहां रहना-खाना मुफ्त है। वहां उसके भीतर पर्वतारोहण की प्रतिभा को पहचान कर विभाग के सचिव प्रवीण कुमार उसे बढ़ावा देते हैं और वह तमाम मुश्किलों को पार करती हुई इतिहास रचती है।
कहानी सीधी है लेकिन इसके आसपास का आवरण इसे विशेष बनाता है। जहां 12-13 की होते-होते लड़कियों की शादी कर दी जाती है, वहां से निकल कर पूर्णा आगे बढ़ती है। उधर स्कूलों की हालत खराब है। टीचरों की पढ़ाने की फिक्र नहीं है और ठेकेदारों को पौष्टिक खाना खिलाने की। लेकिन प्रवीण कुमार के मजबूत इरादों से हालात बदलने लगते हैं। फिल्म इस बात को साबित करती है कि व्यवस्था को बदलने का काम हमेशा ऊपरी स्तर से होता है। अगर ऊंची कुर्सियों पर बैठे लोग तय कर लें कि तो नीचे वालों की मजाल नहीं कि बेईमानी या काहिली कर सकें।
अक्सर हम शिकायत करते हैं कि अच्छी-भली कहानी को डायरेक्टर ने ‘फिल्मी’ बना दिया। लेकिन इस फिल्म को लेकर यह शिकायत की जा सकती है कि राहुल बोस ने इसे ‘फिल्मी’ क्यों नहीं बनाया? वास्तविक लोकेशंस, उम्दा कैमरागिरी, बिल्कुल रियल लगते कलाकारों, हिन्दी-तेलुगू मिश्रित भाषा और बिना किसी मसाले-फॉर्मूले के फिल्म बहुत ही सहज और प्यारी तो लगती है लेकिन ऐसी कहानियां अगर थोड़ी भव्यता के साथ बड़े पैमाने पर बनाई जाएं तो वह ‘दंगल’ हो जाती है।
लेकिन यह फिल्म भी कम नहीं है। पूर्णा के किरदार को अदिति इनामदार इतनी गहराई से जीती हैं कि वह असली पूर्णा लगती हैं। उसे प्रेरित करने वाली सहेली प्रिया के रोल में एस. मारिया भी उतनी ही विश्वसनीय लगती हैं। प्रवीण कुमार के रोल में राहुल बोस उम्दा रहे हैं। धृतिमान चटर्जी, आरिफ जकारिया, हर्षवर्द्धन और नसीरुद्दीन शाह की बेटी हीबा शाह और बाकी तमाम कलाकार भी अपने किरदारों में एकदम खरे उतरे। गाने थोड़े और बेहतर, और प्रेरक हो सकते थे। राहुल बोस का बतौर निर्माता इस फिल्म को बनाना और उनका निर्देशन तारीफ का हकदार है। लेकिन थोड़ी और कल्पनाशीलता, थोड़ी और भव्यता, थोड़ा और ‘पुश’ इस फिल्म को कहां से कहां पहुंचा सकता था।
‘पूर्णा’ जैसी फिल्में उम्मीदें जगाती हैं। बताती हैं कि अपने बच्चों की आंखों में झांकिए, वहां सपने तैरते हुए दिखें तो उन सपनों को सच करने में जुट जाइए। क्या पता कब, कौन, कहां इतिहास रच दे। यह फिल्म एक से ज्यादा राष्ट्रीय पुरस्कारों की हकदार है जो इसे मिलने ही चाहिएं।
अपनी रेटिंग-चार स्टार
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