-दीपक दुआ...
विद्या बालन से हुई मेरी बातचीत के बाकी अंश सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत हैं। मगर पहले जरा इस फिल्म की कहानी भी जान लें...
कहानी ‘बेगम जान’ की
1947 में बंटवारे से ठीक पहले का समय। भारत और पाकिस्तान के बीच बंटवारे की कंटीली तार बिछाई जानी है। लेकिन बीच में आ जाता है पंजाब की धरती पर बना बेगम जान का कोठा। उसे कोठा हटाने को कहा जाता है तो वह मना कर देती है। और जब बेगम जान के सरपरस्त राजा साहब उसकी मदद से इंकार कर देते हैं तो वह कहती है कि अब तो मैं अपने महल में ही मरूंगी, रानी की तरह। बेगम और उस घर में रहने वाली लड़कियां सरकारी अमले से भिड़ती हैं और इज्जत की मौत को गले लगाना स्वीकार करती हैं।विद्या बालन से हुई मेरी बातचीत के बाकी अंश सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत हैं। मगर पहले जरा इस फिल्म की कहानी भी जान लें...
कहानी ‘बेगम जान’ की
और अब सवाल-जवाब
-बेगम जान के किरदार की किस बात ने आपको सबसे ज्यादा प्रभावित किया?
- इस किरदार की यात्रा बड़ी ही उतार-चढ़ाव भरी है। कभी तो यह एकदम सख्त हो जाती है, कभी बिल्कुल ही ममतामयी हो जाती है। कभी मजाक करती है, कभी कड़वा बोलती है। जब राजा साहब आते हैं तो यह उनके सामने बिछ-सी जाती है और उनके जाने के बाद यह एकदम ही अलग रूप में आ जाती है। इसकी इसी खासियत ने ही मुझे इसकी तरफ सबसे ज्यादा आकर्षित किया था।
-‘राजकहिनी’ भी तो आपको ऑफर हुई थी?
-हां, उस समय मैं इसे नहीं कर पाई थी और मुझे खुशी है कि उसे जब हिन्दी में बनाने की बात आई तो श्रीजित मेरे पास वापस आए। और जिस तरह से इस फिल्म को हिन्दी में फिर से लिखा गया है इसे आप पूरी तरह से रीमेक भी नहीं कह सकते। मैं खुद को खुशकिस्मत समझती हूं कि मैं इस फिल्म का हिस्सा बन पाई और श्रीजित के साथ काम करने का मुझे अवसर मिला।
-‘द डर्टी पिक्चर’ में भी आप बहुत सारे लोगों के सामने तन कर खड़ी होती हैं। कितना अलग था सिल्क की भूमिका से बेगम जान के किरदार को निभाना?
-मेरे लिए बेगम जान उन सभी किरदारों से अलग है जो मैंने अब तक निभाए हैं। मुझे हमेशा से उन औरतों के बारे में जानना, पढ़ना अच्छा लगता रहा है जो अपने लिए या दूसरों के लिए समाज से लड़ने की इच्छा रखती आई हैं। बेगम जान को अपने पेशे पर कोई शर्मिंदगी नहीं है और वह इतनी ताकतवर औरत है कि कुछ भी हो, वह उसे करना और करवाना जानती है। लेकिन जब राजा साहब उसका हाथ झटक देते हैं और वह अपने दम पर खड़ी होती है तो इस किरदार की असल ताकत सामने आती है। मुझे बेगम जान की इस ताकत को महसूस करना था।
-इस फिल्म में एक सीन है जिसमें आप कहती हैं कि हम तो गालियां भी मां-बहन के नाम पर देती हैं।
-हां, आप देखिए न कि तमाम अच्छी चीजें मर्दों के लिए हैं और जब गालियों की बात आती है तो मर्दों के लिए एक भी गाली नहीं है। तो यह जो नाइंसाफी है, यह आज से नहीं सदियों से होती चली आ रही है। मुझे तब बहुत खराब लगता है जब कोई औरतों को नीची नजर से देखता है या यह सोचता है कि औरतें मर्दों के बराबर नहीं हैं। औरतों के प्रति भेदभाव मुझे उद्वेलित कर देता है और शायद यही कारण है कि मैं इस किस्म के किरदारों को अपने करीब महसूस करती हूं और उन्हें अच्छे से निभा पाती हूं।
-इस रोल के लिए आपने कैसे खुद को तैयार किया? क्या आपने इतिहास की किताबें पढ़ीं?
-क्या इस किस्म के किरदार लंबे समय तक अंदर मौजूद भी रहते हैं?- इस किरदार की यात्रा बड़ी ही उतार-चढ़ाव भरी है। कभी तो यह एकदम सख्त हो जाती है, कभी बिल्कुल ही ममतामयी हो जाती है। कभी मजाक करती है, कभी कड़वा बोलती है। जब राजा साहब आते हैं तो यह उनके सामने बिछ-सी जाती है और उनके जाने के बाद यह एकदम ही अलग रूप में आ जाती है। इसकी इसी खासियत ने ही मुझे इसकी तरफ सबसे ज्यादा आकर्षित किया था।
-‘राजकहिनी’ भी तो आपको ऑफर हुई थी?
-हां, उस समय मैं इसे नहीं कर पाई थी और मुझे खुशी है कि उसे जब हिन्दी में बनाने की बात आई तो श्रीजित मेरे पास वापस आए। और जिस तरह से इस फिल्म को हिन्दी में फिर से लिखा गया है इसे आप पूरी तरह से रीमेक भी नहीं कह सकते। मैं खुद को खुशकिस्मत समझती हूं कि मैं इस फिल्म का हिस्सा बन पाई और श्रीजित के साथ काम करने का मुझे अवसर मिला।
-‘द डर्टी पिक्चर’ में भी आप बहुत सारे लोगों के सामने तन कर खड़ी होती हैं। कितना अलग था सिल्क की भूमिका से बेगम जान के किरदार को निभाना?
-मेरे लिए बेगम जान उन सभी किरदारों से अलग है जो मैंने अब तक निभाए हैं। मुझे हमेशा से उन औरतों के बारे में जानना, पढ़ना अच्छा लगता रहा है जो अपने लिए या दूसरों के लिए समाज से लड़ने की इच्छा रखती आई हैं। बेगम जान को अपने पेशे पर कोई शर्मिंदगी नहीं है और वह इतनी ताकतवर औरत है कि कुछ भी हो, वह उसे करना और करवाना जानती है। लेकिन जब राजा साहब उसका हाथ झटक देते हैं और वह अपने दम पर खड़ी होती है तो इस किरदार की असल ताकत सामने आती है। मुझे बेगम जान की इस ताकत को महसूस करना था।
-इस फिल्म में एक सीन है जिसमें आप कहती हैं कि हम तो गालियां भी मां-बहन के नाम पर देती हैं।
-हां, आप देखिए न कि तमाम अच्छी चीजें मर्दों के लिए हैं और जब गालियों की बात आती है तो मर्दों के लिए एक भी गाली नहीं है। तो यह जो नाइंसाफी है, यह आज से नहीं सदियों से होती चली आ रही है। मुझे तब बहुत खराब लगता है जब कोई औरतों को नीची नजर से देखता है या यह सोचता है कि औरतें मर्दों के बराबर नहीं हैं। औरतों के प्रति भेदभाव मुझे उद्वेलित कर देता है और शायद यही कारण है कि मैं इस किस्म के किरदारों को अपने करीब महसूस करती हूं और उन्हें अच्छे से निभा पाती हूं।
-इस रोल के लिए आपने कैसे खुद को तैयार किया? क्या आपने इतिहास की किताबें पढ़ीं?
-नहीं। श्रीजित मुखर्जी ही मेरी इतिहास, भूगोल और इमोशंस की किताब थे। मैंने इनसे ढेरों सवाल पूछ-पूछ कर इनका इतना दिमाग चाटा कि कई बार तो ये परेशान हो जाते थे। मुझे तो लगता है कि जितनी बड़ी स्क्रिप्ट इन्होंने फिल्म के लिए लिखी उससे कहीं ज्यादा बड़े जवाब इन्हें मेरे सवालों के देने पड़े।
-हां, बिल्कुल। और यह काफी स्वाभाविक भी है। इसीलिए मैं अक्सर मुंबई से बाहर जाकर शूटिंग करना पसंद करती हूं क्योंकि तब आप यहां के माहौल से, यहां की आपाधापी से खुद को डिस्कनैक्ट करके उस किरदार और उस माहौल को ज्यादा गहराई से महसूस कर सकते हैं। जहां तक इस फिल्म और इस किरदार की बात है तो एक बार मेकअप करके सैट पर पहुंचने के बाद मैं खुद को बेगम जान की तरह देखने लगती थी और मुझे तो यह भी लगता है कि इस तरह की फिल्म करने के बाद कम से कम तीन महीने तक कुछ और नहीं करना चाहिए क्योंकि वह फीलिंग अंदर से जाती ही नहीं है।
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