-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
सरकार यानी सुभाष नागरे अब करीब 75 साल के हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में अभी भी उनका सिक्का चलता है। बिजनेसमैन गांधी अपने एक प्रोजेक्ट में उनकी मदद चाहता है लेकिन सरकार मना कर देते हैं। यहां से इनकी दुश्मनी शुरू होती है जिसमें दोनों तरफ साजिशें होती हैं, छल-कपट के खेल खेले जाते हैं, निष्ठाएं पलटती हैं, हत्याएं होती हैं और जाहिर है, चौथे पार्ट के बनने की संभावनाओं के साथ फिल्म खत्म होती है।
‘सरकार’ और ‘सरकार राज’ से राम गोपाल वर्मा ने जो साख बनाई उसने इस सीरिज की फिल्मों के प्रति दर्शकों की उम्मीदों को बढ़ाने का काम किया है। यह फिल्म भी अपने फ्लेवर और कलेवर से पिछली दोनों फिल्मों जैसा होने का ही अहसास कराती है। शुरू में उम्मीद बंधती है कि सरकार के पोते चीकू के आने से कहानी में नयापन आएगा लेकिन बहुत जल्द यह फॉर्मूला गैंग्स्टर फिल्मों के घिसे-पिटे ढर्रे पर चलने लगती है। अपनी साधारण कहानी और रुटीन पटकथा के चलते इस का प्रभावी कलेवर भी इसकी मदद नहीं कर पाता।
गांधी सरकार से कहता है कि हमारे बीस हजार करोड़ के प्रोजेक्ट के लिए धारावी से 15 हजार लोगों को हटवा दीजिए, हम आपको पैसे देंगे, उन लोगों को नहीं। जबकि खुद गांधी का बॉस (जैकी श्रॉफ) बार-बार कहता है कि सरकार के पास 40 साल से लोगों का प्यार और इज्जत है। जब सारी दुनिया जानती है कि सरकार आम आदमियों का पक्षधर है, फिर ऐसा बेवकूफाना-सा ऑफर उन्हें दिया ही क्यों गया? और एक जगह से आप बिना कुछ दिए 15 हजार लोग हटवा देंगे तो हो-हल्ला नहीं मचेगा? चलिए यह भी छोड़िए, 15 हजार यानी 4-4 लोगों के 3750 परिवार। सब को 5-5 लाख भी दिए जाएं तो 188 करोड़ रुपए ही तो बनते। बीस हजार करोड़ में से इतने तो आप दे ही सकते हो। लगता है स्क्रिप्ट तैयार करते समय रामू की कैलकुलेशन कमजोर पड़ गई। वरना 75 साल के सरकार को 40 साल से इस धंधे में न बताते। और यह 40 साल का क्या चक्कर है? सरकार की बीवी मरती है तो वह कहता है कि 40 साल से मेरे साथ थी। इस तरह तो सरकार के बड़े बेटे की उम्र हुई 39 साल और पोता तो अभी स्कूल में ही होता। 50 बोल देते, सब सही हो जाता। और हां, पोता आएगा तो सरकार के वफादारों को चुभेगा ही। सरकार उसका पक्ष लेंगे ही। नहीं लेंगे तो कोई न कोई सस्पेंस होगा ही। वफादारों को खरीदने की कोशिश होगी ही। बिक गए तो ठीक, नहीं बिके तो जरूर कोई राज होगा ही। अरे यार, कुछ नया सोचो अब।
अमिताभ के अभिनय में वही पुराना ताप है। उन्हें ज्यादातर समय चुप रहना था और यूं, यूं कैमरे को घूरना था जो उन्होंने बखूबी किया। उनके वफादार रोनित रॉय भी ऐसे ही रहे। मनोज वाजपेयी को बढ़िया किरदार
दिया गया जिसे उन्होंने बहुत सलीके से निभाया भी लेकिन बड़ी जल्दी उन्हें चलता कर दिया गया। लगता है, लेखक उनके किरदार को आगे ले जाने में खुद को असमर्थ पाने लगे थे। जैकी श्रॉफ जोकरनुमा लगते हैं। उनके साथ एक मंदबुद्धि लड़की क्या दर्शकों की आंखों को सुकून देने के लिए रखी गई? सरकार के पोते की भूमिका में अमित साध असर छोड़ते हैं। यामी गौतम को सिर्फ शो-पीस की तरह रखा गया। रोहिणी हट्टंगड़ी और सुप्रिया पाठक प्रभावित करती हैं। लेकिन सुप्रिया से मराठी कुछ ज्यादा ही बुलवाई गई।
गानों की जरूरत नहीं थी, फिर भी हैं। हालांकि गणपति की आरती माहौल बनाती है। रामू की फिल्मों में कैमरावर्क कमाल का रहता ही है। यहां भी कई शॉट बहुत उम्दा लगते हैं और सीन के प्रभाव को बढ़ाते हैं। लेकिन अंधेरे का बहुतायत से इस्तेमाल और कैमरे के कोणों में जरूरत से ज्यादा प्रयोगवादी होना कुछ देर के बाद आंखों को खटकने लगता है। बैकग्राउंड म्यूजिक भी कुछ जगह असर बढ़ाते-बढ़ाते संवादों पर हावी होने लगता है तो चुभने लगता है। हालांकि फिल्म कसी हुई है लेकिन इसमें रामू के ही पिछले कामों का दोहराव दिखता है और जिस तरह से यह अपने अंत की ओर सरकती है, उसमें नएपन और कल्पनाशीलता का अभाव भी साफ झलकता है। और हां, ‘सरकार’ वाली फिल्मों में आप दिखाते गणपति हो लेकिन पूरी फिल्म में गूंजता ‘गोविंदा गोविंदा गोविंदा गोविंदा’ है, क्यों भई?
अपनी रेटिंग-2
स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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