Wednesday, 4 April 2018

आतंकी कसाब की जीवनी...!

-दीपक दुआ...
मैं किस्से-कहानियां वाली किताबें ज्यादा नहीं पढ़ता। ही मैं ऐसी किताबों की समीक्षा करने के लिए खुद को उपयुक्त पाता हूं। बावजूद इसके मैंने यह काम किया है। कुछ लेखक-प्रकाशक मुझसे यह काम करवाते हैं, करवाना चाहते हैं। शायद इसके पीछे मेरे द्वारा की जाने वाली फिल्म समीक्षाएं एक बड़ा कारण हैं। वैसे भी मैं खुद को एक फिल्म पत्रकार ही मानता हूं और जब भी मैं कोई किताब पढ़ता हूं तो मेरे जेहन में उसकी कहानी किसी फिल्म की तरह चलने लगती है। मेरा यही मानना है कि अगर कोई कहानी पढ़ते समय वह विज़ुअल रूप लेकर आपके दिमाग की स्क्रीन पर दौड़े तो उसे लिखा जाना व्यर्थ है। कहानी वही अच्छी जो आपको अपने साथ बहा कर ले जाए और इस नजरिए से देखें तो हरीश शर्मा की यह किताब मुझे अफसोस नहीं-कसाबअपने मकसद में कामयाब रही है।

मुंबई हमले में शामिल रहे और जिंदा पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब की जीवनी...! यह अपने-आप में अनोखा विषय है। सोचिए, कसाब को फांसी हो चुकी है और अपनी आखिरी इच्छा के तौर पर वह चाहता है कि उसकी जीवनी लिखी जाए। सरकार इस काम के लिए एक नामी टी.वी. एंकर को चुनती है जो पांच दिन तक कसाब के सामने बैठ कर उससे उसकी कहानी सुनती है। वो कहानी जो उसने पुलिस को नहीं सुनाई। या जो पुलिस ने उससे पूछी ही नहीं। इस बातचीत में कसाब कुछ ऐसे राज़ भी खोलता है जो चौंकाते हैं, दहलाते हैं और बताते हैं कि हमारे पड़ोसी मुल्क के इरादे किस कदर खतरनाक हैं। कहिए, आया मज़ा...?

इस किताब को पढ़ते समय मेरे जेहन में एक एक्शन-थ्रिलर पिक्चर चल रही थी। जेल में अपनी कहानी सुनाता कसाब और फ्लैश-बैक में आते सीन। हालांकि मूल रूप से अंग्रेजी में आई एम नॉट गिल्टी-कसाबके नाम से लिखी गई और बाद में हिन्दी में अनूदित की गई इस किताब के वाक्य-विन्यास कई जगह जटिल और लंबे हो गए हैं। वर्तनी प्रूफ की भी इसमें बहुतेरी गलतियां हैं लेकिन इन्हें दरकिनार करके अगर इस किताब को इसकी कहानी के लिए पढ़ा जाए तो यह भरपूर मजा देती है। हालांकि इसमें काफी कुछ ऐसा है जो कसाब ने अपने बयानों में कहा लेकिन साथ ही बहुत कुछ ऐसा भी है जो कसाब ने नहीं कहा बल्कि वह लेखक की कल्पना से उपजा है मगर उसे पढ़ते हुए लगता है कि यह भी सच ही है। ऐसा सच, जो सामने नहीं आ पाया और अगर आता तो उस सच का चेहरा कुछ ऐसा ही होता। मन होता है कि इस किताब पर एक फिल्म बने और हम इस कहानी को पर्दे पर रूबरू देख पाएं। हरीश शर्मा ऐसा करेंगे, मुझे यकीन है। तब तक नोशनप्रेस से आई इस किताब को पढ़ कर तो मजा लूटा ही जा सकता है।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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