Sunday, 28 July 2019

रिव्यू-अर्जुन ‘लिटल-लिटल’ पटियाला

-दीपक दुआ...(Featured in IMDb Critics Reviews)
इस फिल्म में पांच गाने हैं, हीरो-हीरोइन का रोमांस है, कॉमेडी है, पांच विलेन हैं (जो अंताक्षरी खेलने के लिए तो नहीं रखे गए हैं) यानी एक्शन भी है, इमोशन भी है, सोशल मैसेज भी है, और हां, सनी (पा जी नहीं) लियोनी भी है। अब एक हिन्दी फिल्म में आपको और क्या चाहिए?

फिल्म की शुरूआत में एक राइटर (अभिषेक बैनर्जी) एक प्रोड्यूसर (पंकज त्रिपाठी) को एक फिल्म की कहानी सुना रहा है। यह पूरी कहानी इन्हीं के ख्यालों में ही चल रही है। पंजाब के फिरोजपुर में नया आया थानेदार (दिलजीत दोसांझ) अपने बॉस (रोनित रॉय) के कहने पर जिले को क्राइम-फ्री करने के लिए बदमाशों को आपस में लड़वा कर खत्म करवा रहा है। इस काम में उसका मुंशी ओनिडा (वरुण शर्मा) भी उसके साथ है। न्यूज़-चैनल की रिर्पोटर रितु (कृति सैनन) के साथ उसका रोमांस भी चल रहा है। बस जी, इसी कहानी में ही वो सारे मसाले हैं, जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है।

इस साधारण-सी कहानी को कॉमिक-फ्लेवर में परोसा गया है। फ्लेवर भी कैसा, किसी कॉमिक्स या वीडियो- गेम जैसा। सही है, नयापन देने के लिए राइटरों, डायरेक्टरों को कुछ तो अलग करना ही होगा। लेकिन सिर्फ नएपन से ही चीज़ें धारदार बनती होती तो हर एक्सपेरिमैंट सुपरहिट हो चुका होता। दरअसल इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी यह है कि इसे लिखने में रितेश शाह ने ज़्यादा दम नहीं लगाया। अगर वह ज़ोर लगा के हईशा कर देते तो यह फिल्म ठहाके लगवा सकती थी। फिलहाल तो इसे देखते हुए आप सिर्फ मुस्कुराते भर हैं जबकि कॉमेडी फिल्में मुस्कुराहटों के लिए नहीं, ठहाकों के लिए देखी और याद की जाती हैं। फिल्म के गाने अलबत्ता चटकीले हैं। और हां, फिल्मों में पंजाबी का मतलब हर समय दारू में डूबे हुए लोग नहीं होते।

बरसों पहले दो थकी हुई फिल्में दे कर पंजाबी फिल्मों का रुख कर चुके निर्देशक रोहित जुगराज ने अर्से बाद  इस फिल्म से हिन्दी में वापसी की है। उनका निर्देशन पहले के मुकाबले सधा हुआ है लेकिन कमज़ोर कहानी और स्क्रिप्ट के चलते वह असर नहीं छोड़ पाता। दिलजीत दोसांझ इस तरह के किरदारों में जंचते हैं, जंचे हैं। कृति सैनन तो अपनी मौजूदगी से ही दिल लूट लेती हैं। वरुण शर्मा (चूचा) को और ज़्यादा मौके दिए जाने चाहिए थे। खुद लेखक रितेश शाह दिलजीत के पिता के रोल में अच्छे लगे हैं। काम तो बाकी सबका भी बढ़िया है चाहे वह रोनित रॉय हों, सीमा पाहवा या फिर मौहम्मद ज़ीशान अय्यूब, जिनके किरदार को और खौफनाक बनाया जा सकता था। फिल्म के अंत में कहानी सुनते-सुनते वह प्रोड्यूसर और सुनाते-सुनाते वह लेखक सो चुके हैं। काम वाली बाई आकर पूछती है-क्या लगता है, चलेगी फिल्म? प्रोड्यूसर का चमचा जवाब देता है-तू झाड़ू लगा, ज़्यादा क्रिटिक मत बन। तो, जब फिल्म बनाने वालों की सोच का यह स्तर हो, तो समझ लीजिए कि उन्होंने भी फिल्म नहीं बनाई है, झाड़ू ही लगाया है-निर्माता के पैसों पर।

यह फिल्म असल में पटियाला पैगके नाम पर लिटल-लिटलही परोसती है। लिटल कॉमेडी, लिटल एक्शन, लिटल रोमांस, लिटल मनोरंजन। अब लिटल के लिए ज़्यादा पैसे खर्चने हों तो आपकी मर्ज़ी, वरना सब्र कीजिए, जल्द ही यह टी.वी.-मोबाइल पर ही जाएगी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

3 comments:

  1. Going to watch but now wait for its telecast on tv

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  2. Patiala means a little big, large but your viewa suggest not fit on its name Patiala

    So wait to watch it on TV/Mobile

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  3. Haha also little funny little action but wrote ss olways correct thanx for this sir hope u seen soon

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