-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
एक मेधावी छात्र गरीबी के कारण पढ़ने के लिए विदेश न जा सका लेकिन शहर के एक महंगे कोचिंग सैंटर का स्टार टीचर बन कर तगड़ी कमाई करने लगा। एक दिन अपनी ही तरह के एक मेधावी मगर गरीब छात्र को देख कर उसकी आंखें खुलीं और उसने 30 गरीब मेधावी छात्रों को चुन कर उन्हें इंजीनियनिंग की प्रवेश-परीक्षा की तैयारी करवानी शुरू कर दी, अपने खर्चे पर। इस तरह से साल-दर-साल यह टीचर ऐसे 30 बच्चों के खाने-पीने, रहने-पढ़ने का खर्चा उठाता रहा और उनमें से ज्यादातर को आई.आई.टी. जैसे संस्थानों में पहुंचाता रहा। इस टीचर के रास्ते में ढेरों बाधाएं भी आईं लेकिन इसने हार न मानी और एक दिन पूरी दुनिया ने इसे इज़्ज़त दी।
है न प्रेरणादायक कहानी? यह कहानी है बिहार के गणितज्ञ टीचर आनंद कुमार की। इसी से ‘प्रेरित’ होकर ही बनी है यह फिल्म। गौर कीजिएगा, ‘प्रेरित’
है, ‘आधारित’ नहीं। इसे जान-बूझ कर ‘फिल्मी’
बनाया गया है और इसका यह ‘फिल्मीपन’ ही इसके गाढ़ेपन को हल्का बनाता है, इसे एक सशक्त फिल्म बनने से रोकता है, इसे एक ऐसी फिल्म का दर्जा नहीं दे पाता जो दर्शकों और फिल्मकारों के लिए एक मिसाल बन जाए और बरसों तक उनके दिलों में बैठ जाए।
फिल्म का आनंद कुमार पिता की मौत के बाद सड़कों पर घूम-घूम कर अपनी मां के बनाए पापड़ बेचता है। कहते हैं कि असली आनंद कुमार ने भी पापड़ बेचे थे। हालांकि तार्किक मन पूछता है कि घर में दो-दो मुस्टंडे नौजवान थे तो यह नौबत ही क्यों आई? सरकारी कर्मी रहे पिता की पेंशन भी तो आती होगी? और वैसे भी कोई भी पढ़ा-लिखा नौजवान आड़े वक्त में सबसे पहले अपनी शिक्षा को हथियार बनाता है, नौकरी तलाशता है, गली-पड़ोस में ट्यूशन पढ़ाता है। खैर...!
लल्लन जी के कोचिंग सैंटर में पढ़ाते हुए ‘आंखे खुलने’ के बाद आनंद कुमार का सब छोड़ कर संत और क्रांतिकारी बन जाना दिल को भले ही रुचता हो, दिमाग को नहीं। तार्किक मन पूछता है कि आनंद कुमार एकदम से सब को लात काहे मार दिए बे...! इन बच्चों पर हो रहे खर्चे के लिए दिन में चार ठौ घंटा लल्लन के यहां पढ़ा दिए होते तो वो भी खुस्स होता, वहां पढ़ रहे अमीर बच्चे भी और इधर ये 30 मेधावी गरीब बालक भी। तब न उनकी राह में वे बाधाएं आतीं जो फिल्म दिखाती है और अमीर-गरीब, सब जाकर प्रवेश-परीक्षा देते, जिसमें ज्यादा प्रतिभा होती, वह जीत जाता। (असली आनंद कुमार ने तो यही किया था) बूझे...!
फिल्म में एक सीन है भी जब एक अमीर बच्चा आनंद कुमार से पूछता है कि सर इसमें हमारा क्या कसूर है जो हम अमीर परिवार में पैदा हुए? न आनंद कुमार कोई जवाब देते हैं, न ही यह फिल्म। दरअसल यही इस फिल्म की सबसे बड़ी कमी है कि यह बराबरी की बात करती है, वर्ग-संघर्ष की बात करती है लेकिन उसे कायदे से उकेर-दिखा नहीं पाती। साथ ही यह कहती तो नहीं, लेकिन इसके संवादों की टोन कुछ ऐसी है कि हर अमीर ऊंची जाति का होता है और हर गरीब दलित। विपरीत परिस्थितियों से जूझते-भिड़ते एक अंडरडॉग और उसके 30 बच्चों के संघर्ष को यह बहुत ही उथली नज़र से देखती और बहुत ही छिछले नज़रिए से दिखाती है। विपरीत परिस्थितियां भी कैसी, बिल्कुल ‘फिल्मी’
लगें ऐसी। आनंद को अपने घर-परिवार की कोई फिक्र ही नहीं, खुद की कोई परवाह ही नहीं। बस, बच्चों के लिए तीन महीने का राशन मिल जाए। और वह मिला भी कैसे, फिल्म ने दिखाया मगर बताया नहीं। न शिक्षा-व्यवस्था पर कोई टिप्पणी,
न उस सामाजिक-व्यवस्था की बात, जिसने समाज के कुछ वर्गों (इसमें हर जाति के लोग हैं) को समान अवसरों से वंचित कर दिया। और गौर करें तो एक तरह से यह फिल्म कोचिंग के उस जंजाल का समर्थन करती ही नज़र आती है जिसे लेकर हमारा समाज अक्सर चिंताएं प्रकट करता रहा है। एक सीन में आनंद कुमार एक छात्र से पूछते हैं-‘इतना गलत कैसे हो सकते हो भाई? फिल्म देखते हुए मन होता है कि इसे बनाने वालों से पूछा जाए कि गणित जैसी, दुनिया की सबसे तार्किक चीज पर फिल्म बनाते समय इतना अतार्किक कैसे हो सकते हो भाई?
इंटरवल तक फिल्म की लिखाई शानदार है। लगता है कि यह एक वास्तविक हीरो की कहानी को वास्तविकता के कलेवर में दिखा रही है और आगे चल कर यह हमारे भीतर जोश और जज़्बा ला सकेगी। लेकिन बाद में यह फैलने लगती है। वास्तविक मुश्किलों के फिल्मी हल दिखाती है और फिल्मी किस्म की मुश्किलों में उलझने लग जाती है। अंग्रेज़ी में गाने या गुंडों के हमले वाले सीक्वेंस ‘बॉलीवुडाना’ लगते हैं। कोचिंग चलाने वाला लल्लन इतना बौखलाया हुआ क्यों है जबकि आनंद की फ्री-कोचिंग से उसके बिज़नेस पर न तो कोई असर पड़ सकता है और न ही अभी तक आनंद के पढ़ाए बच्चों का पहला बैच निकल कर आया है? और क्या पूरे शहर में एक ही काबिल टीचर है? यह तो बिहार की प्रतिभा का अपमान हो गया भाई! फिल्म के ‘कुछ’ संवादों में जान है।
कुछ एक जगह प्रतीकों और बिंबों का अच्छा इस्तेमाल है। आनंद के पिता साईकिल की चेन उतर जाने पर दो पैडल पीछे की तरफ मारते हैं तो चेन चढ़ जाती है। ज़िंदगी भी ऐसी ही है, अटको तो थोड़ा पीछे आ जाओ, फिर आगे बढ़ो। आनंद यही करता है। फिल्म के लुक के साथ काफी दिक्कत है। पर्दे पर हर समय मटमैली रंगत देख कर लगता है कि सत्तर के दशक में पहुंच गए हैं। नब्बे का दशक इतना भी बदरंग नहीं था भाई। बच्चों के कपड़े आदि देख कर लगता है कि वे गरीब हैं लेकिन आनंद कुमार को देख कर लगता है कि उसके पास नहाने तक के पैसे नहीं हैं। लहज़े की कमियों के बावजूद इस किरदार को पकड़ने में की गई हृतिक रोशन की मेहनत दिखती है। मृणाल ठाकुर प्यारी लगती हैं। पंकज त्रिपाठी हर बार की जंचते हैं, हंसाते हैं और अपने हल्के किरदार को भी इंप्रोवाइज़ करके ऊंचाई पर ला देते हैं। अमित साध को फिल्म बेवजह एटिट्यूट में दिखाती है। आदित्य श्रीवास्तव, वीरेंद्र सक्सेना, नंदिश सिंह, परितोष संड, मानव गोहिल, अली हाजी और बच्चों के किरदारों को निभाने वाले सभी कलाकारों का काम उम्दा रहा है। कैमरावर्क साधारण है, सैट्स भी। संगीत में रेट्रो टच है, ‘करीब’ फिल्म के संगीत का स्मूथ टच भी। बैकग्राउंड म्यूज़िक प्रभावी है। फिल्म काफी लंबी है और यह लंबाई कई जगह अखरती भी है।
पिछले बरस ‘मीटू’ वाले आरोप के बाद निर्देशक विकास बहल को यह फिल्म छोड़नी पड़ी थी जिसके बाद इसे अनुराग कश्यप ने पूरा किया। यह फिल्म देख कर लगता है कि फिल्म के साथ भी ज़बर्दस्त ‘मीटू’ हुआ है जो इसे वन टाइम वॉच (मस्ट वॉच नहीं) का ही दर्जा दे पाता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बहुत ही प्रभावशाली रिवयू
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteहम तो ये फ़िल्म केवल पंकज त्रिपाठी के लिए देखने वाले हैं 🤔
ReplyDeleteबहुत खूब...
Deleteहमेशा की तरह शानदार
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteफिल्म सुपर 30 के बारे में अच्छी जानकारी
ReplyDeleteकाश आपका ये रिव्यु पहले पढ़ लेता
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