19 सितंबर, 2008 को दिल्ली के ’बाटला हाउस’ (या ’बटला हाउस) की उस इमारत में असल में क्या हुआ था, इसे लेकर तब तरह-तरह की बातें सुनने में आई थीं। आज भले ही इस केस से जुड़ा काफी सारा सच सामने आ चुका हो फिर भी कुछ लोगों का मानना है कि उस दिन वहां वैसा नहीं हुआ जैसा पुलिस बताती है। वहां कोई आतंकी नहीं थे और पुलिस ने सिर्फ अपनी इज़्ज़त ढांपने के लिए वो फर्ज़ी एनकाउंटर किया था जिसमें कुछ बेकसूर छात्रों के साथ-साथ अपने ही एक इंस्पेक्टर को भी पुलिस वालों ने मार डाला था। यह फिल्म इसी केस से जुड़े पहलुओं, लोगों, उनकी मनोदशाओं और सामने आते सच-झूठ की पड़ताल करती है-कहीं यथार्थवादी तो कहीं फिल्मी तरीके से।
इस एनकाउंटर को करने वाली टीम का मुखिया ए. सी.पी. संजय कुमार (जॉन अब्राहम) जब तक मौके पर पहुंचता है, गोलीबारी लगभग हो चुकी होती है। इसीलिए वह भी असमंजस में है कि जो हुआ कहीं उसमें पुलिस की ही तो गलती नहीं थी। उसे भ्रम होते हैं, मानसिक परेशानियां भी, लेकिन वह सच को सामने लाने की अपनी कोशिशें जारी रखता है। फिल्म दिखाती है कि इस दौरान कैसे तरह-तरह के सामाजिक, राजनीतिक और विभागीय दबाव पुलिस पर पड़ते हैं। इस किस्म की घटनाओं के बाद खुद श्रेय लूटने से लेकर दूसरों पर दोष मढ़ने जैसे वाकये अपने यहां होते आए हैं। फिल्म ये सब तो दिखाती ही है, साथ ही कुछ वाजिब सवाल भी उठाती है और उन पुलिस वालों के नज़रिए से भी सोचने को कहती है जो ऐसे मौकों पर अपनी जान की परवाह किए बगैर सिर्फ अपनी ड्यूटी कर रहे होते हैं, ताकि लोग सुरक्षित रहे।
मौजूदा समय के समाज से निकली कहानियों का पर्दे पर आना उत्सुकता बढ़ाता है। लेकिन यह डर भी बना रहता है कि कहीं पर्दा जज की भूमिका न निभाने लगे। इस फिल्म ने भी कई जगह हदें लांघी हैं और फैसले सुनाए हैं। लेकिन ये फैसले तार्किक हैं और लोक-लुभावन भी, इसलिए अखरते नहीं हैं। ए.सी.पी. और उसकी बीवी के बीच की दूरी गैरज़रूरी लगती है। ए.सी.पी. जैसे ऊंचे ओहदे वाले और कई एनकाऊंटर देख चुके शख्स का मानसिक संतुलन हिलना भी सही नहीं लगता। बावजूद इसके, यह फिल्म संतुलित तरीके से अपनी बात सामने रखती है, कई जगह तालियां बजवाती है और खासतौर से कोर्ट में पहुंचने के बाद तो सीधे दिल-दिमाग पर छाने लगती है। रितेश शाह अपनी कलम से जो रंग बिखेरते हैं, निर्देशक निखिल आडवाणी की कूची इन रंगों को पर्दे पर सलीके से फैलाने का काम करती है। हां, बाटला-हाउस एनकाउंटर से बिल्कुल अनजान दर्शकों को फिल्म थोड़ी पराई-सी लगेगी।
जॉन अब्राहम अपने किरदार की मनोदशा को गहराई से पर्दे पर उतारते हैं। उनकी पत्नी बनीं मृणाल ठाकुर कई जगह काफी कमज़ोर लगीं। रवि किशन, मनीष चौधरी, राजेश शर्मा, संदीप यादव, आलोक पांडेय, अनिल जॉर्ज, जितेंद्र त्रेहन जैसे कलाकार अपने किरदारों में फिट रहे हैं। नोरा फतेही भी जंचती हैं। गीत-संगीत नमक जैसा है, ज़रुरी।
इस फिल्म को बाटला-हाउस एनकाऊंटर पर बनी क्लासिक फिल्म नहीं कह सकते। लेकिन यह एक कायदे से बनी हुई फिल्म है जो बताती है कि सच का सिर्फ एक चेहरा नहीं होता। उसे देखने वाले की नज़र भी मायने रखती है। यह फिल्म उन्हीं नज़रों और नज़रियों को सामने लाती है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Excellent Deepak ji as ever.
ReplyDeleteशुक्रिया भाई साहब...
DeleteBhut khoob acha likha sir 👌
ReplyDeleteशुक्रिया...
DeleteBhut khoob acha likha sir 👌
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रिव्यू l पढ़कर अच्छा लगा l रिव्यू को पढ़कर फ़िल्म देखने का मन करता है l आपको बहुत-बहुत बधाई l
ReplyDeleteशुक्रिया आरिफ भाई...
Deletegood. waise batla house ilaqe ka nam hai imarat ka nahin. batla house ki imarat L-18 mein yah waqya hua tha.
ReplyDeleteशानदार समीक्षा। मोहन बिश्नोई
ReplyDeleteशानदार समीक्षा। मोहन बिश्नोई
ReplyDeleteKya baat ha very nice.
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया... आभार...
DeleteThank you sir and your review has made my mind to watch the movie
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया... आभार...
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