Friday, 30 August 2019

पुस्तक समीक्षा-दिल से निकले घुमक्कड़ी के किस्से

-दीपक दुआ...
घूमना भला किसे अच्छा नहीं लगता। शायद ही कोई ऐसा इंसान हो जिसे नई-नई जगहों पर जाना और वहां की यादों को सीने में, आंखों में और कैमरों में संजो कर लाना भाता हो। किसी जगह से लौट कर दूसरों को उसके बारे में बताने का आनंद भी कम नहीं होता। अपनी इस किताब घुमक्कड़ी दिल सेमें अलका कौशिक इस आनंद को जी भर कर लूटती हैं।

अलका कौशिक-देश की ख्यात घुमक्कड़ और ट्रैवल-लेखिका, जिन्होंने घूमने और लिखने के अपने शौक पूरे करने के लिए अच्छी-खासी सरकारी नौकरी छोड़ दी ताकि उन कामों को कर सकें जो उनके दिल के करीब हैं। अलका की इस किताब की गलियों से होकर गुज़रें तो लगता है कि इतनी सारी और इस किस्म की घुमक्कड़ी सचमुच दिल से ही की जा सकती है, दिमाग से नहीं। दिमाग तो किंतु-परंतु में उलझाए रखने वाली मशीन है, यह तो दिल ही है जो इंसान को सारे बंधनों से परे आड़ी-टेढ़ी राहों पर ले जाने का साहस कर लेता है। और वहां से लौटने के बाद फिर ऐसी ही कहानियां सामने आती हैं जो अलका हमें इस किताब में सुनाती हैं।

अलका का लेखन सहज प्रवाह लिए हुए है। शब्दों से वह एक ऐसा संसार रचती हैं जिसमें पाठक खुद को  उनके साथ विचरता हुआ महसूस करता है। लगता है कि कभी हम उनके साथ यूरोप की सड़कों पर घूम रहे हैं तो कभी तिब्बत के पठारों पर। कभी वह हमें राजस्थान के रंग-बिरंगे लैंडस्केप में ले जाती हैं तो कभी हिमाचल के दुर्गम रास्तों पर। यह अलका की शब्दों के साथ बाज़ीगरी ही है कि भूटान, बाली, कच्छ, जोधपुर के उनके यात्रा वृतांत पढ़ कर लगता है कि क्यों इन जगहों पर घूमने के लिए चला जाए तो वहीं कैलाश मानसरोवर, सियाचिन, कुंजुम-रोहतांग के रोमांचक सफर की उनकी यादें रोंगटे भी खड़े कर देती हैं। मन में डर-सा उत्पन्न होता है और इन जगहों पर जाने की इच्छा उस डर के नीचे दबती हुई मालूम होती है। एक ट्रैवल-राईटर की यही कामयाबी है कि वह अपनी कलम से पन्नों पर जो तस्वीरें उकेरता है, उन तस्वीरों में आपको उन जगहों के अक्स नज़र आते हैं।

इस किताब की यही खासियत है कि बिना तस्वीरों के भी ये आपकी आंखों में उन जगहों के दृश्य रचती है और आप वहां की आवाज़ों और सन्नाटे तक को अलका के लेखन में महसूस कर सकते हैं। हालांकि यह इच्छा भी बड़े ज़ोरों से होती है कि काश इस किताब में वे ढेरों रंगीन तस्वीरें भी होतीं जिन्हें अलका अपने कैमरे में कैद करती चलती हैं। पर यदि ऐसा होता तो बेशक इस किताब की लागत बढ़ जाती। हालांकि भावना प्रकाशन ने अभी भी इसकी कीमत काफी ज़्यादा (250 रुपए) रखी है लेकिन इसे पढ़ते हुए जो आनंद आता है वह पैसे वसूल करवा देता है। कहीं-कहीं हल्की-फुल्की भाषाई चूकों को खुद में समेटे यह किताब अहसास कराती है कि छोटी-सी इस दुनिया में ढेरों अनजाने रास्ते हैं और हमारे पास इन रास्तों से होकर गुज़रने के लिए सिर्फ यही एक जन्म। अलका कौशिक जैसे लोग खुशकिस्मत होने के साथ-साथ उस जीवट से भी भरपूर हैं जो इन्हें इन अनजाने रास्तों पर ले जाता है जहां से वे हमारे लिए अपने दिल में घुमक्कड़ी के ये किस्से बटोर कर लाते हैं।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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