-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
कहिए है न मज़ेदार कहानी, कुछ हट के वाली? लेकिन हर मज़ेदार कहानी पर उतनी ही मज़ेदार फिल्म बनती होती तो हमारे यहां साल में चार ‘विक्की डोनर’ और दो ‘बधाई हो’ तो आ ही जानी थी। दरअसल कहानी बढ़िया लेने के बाद का अगला और सबसे ज़रूरी कदम होता है उस पर उतनी ही बढ़िया स्क्रिप्ट लिखना। उस स्क्रिप्ट में उतने ही शानदार किरदार गढ़ना। उन किरदारों से उतने ही जानदार संवाद बुलवाना। और ये सब इस फिल्म में तो है नहीं जी। तो ऐसे में जो बन कर सामने आया है, वह न तो बढ़िया है, न शानदार, न जानदार और मज़ेदार तो कत्तई नहीं है। हैं जी...!
पंजाब के होशियार पुर में खानदानी शफाखाना यानी ‘सैक्स क्लिनिक’ चलाने वाले हकीम ताराचंद (कुलभूषण खरबंदा) अपनी वसीयत में अपना यह दवाखाना अपनी भानजी बेबी बेदी (सोनाक्षी सिन्हा) के नाम कर गए-इस शर्त के साथ कि कम से कम छह महीने उसे यह क्लिनिक चलाना पड़ेगा,
उसके बाद ही वह उसे बेच पाएगी। बेमन से बेबी ने यह काम शुरू किया। धीरे-धीरे उसका मन इसमें रमने लगा। लेकिन घर-परिवार,
दुनिया वाले उसके खिलाफ हो गए। हाय ओ रब्बा, लड़की होकर ‘ऐसे वाला’ क्लिनिक चलाती है, सरेआम ‘सैक्स’
की बात करती है...! लेकिन बेबी ठहरी होशियार पुर की होशियार लड़की। उसने हार थोड़े ही माननी है...!
कहिए है न मज़ेदार कहानी, कुछ हट के वाली? लेकिन हर मज़ेदार कहानी पर उतनी ही मज़ेदार फिल्म बनती होती तो हमारे यहां साल में चार ‘विक्की डोनर’ और दो ‘बधाई हो’ तो आ ही जानी थी। दरअसल कहानी बढ़िया लेने के बाद का अगला और सबसे ज़रूरी कदम होता है उस पर उतनी ही बढ़िया स्क्रिप्ट लिखना। उस स्क्रिप्ट में उतने ही शानदार किरदार गढ़ना। उन किरदारों से उतने ही जानदार संवाद बुलवाना। और ये सब इस फिल्म में तो है नहीं जी। तो ऐसे में जो बन कर सामने आया है, वह न तो बढ़िया है, न शानदार, न जानदार और मज़ेदार तो कत्तई नहीं है। हैं जी...!
इस फिल्म के ही एक संवाद में कहें तो दुनिया की 17 फीसदी आबादी वाले इस देश के 130 करोड़ लोग कोई प्रसाद वाले केले खा के तो प्रकट हुए नहीं होंगे। लेकिन इसी देश में ‘सैक्स’ शब्द सुनते ही सबके कान खड़े हो जाते हैं। ऐसे में आम लोगों के बीच वर्जित यानी टैबू समझे जाने वाले इस विषय पर फिल्मों में बात हो तो अच्छा लगता है। लगता है कि कहीं कुछ बदलने लगा है। इस किस्म के बदलाव ज़रूरी भी हैं। लेकिन ऐसे विषय पर फिल्म बनाते समय कहानी को जिस तरह से फैलाने और समेटने की महारत चाहिए होती है वह हर किसी के बस की बात नहीं। लेखक गौतम मेहरा इस मोर्चे पर बुरी तरह से नाकाम रहे हैं। वह असल में समझ ही नहीं पाए कि उन्हें यह कहानी कॉमेडी का लेप लगा कर कहनी है या फिर इसे सामाजिक संदेश के रैपर में लपेटना है। अरे, इसे सैक्स की बात करने वाली ठहाकेदार कॉमेडी फिल्म बनाते,
ए-सर्टिफिकेट दिलवाते। इसे फैमिली वाली फिल्म बनाने और यू-ए दिलवाने के चक्कर में यह न इधर की रही और न ही उधर की। हकीम ताराचंद ‘खानदानी’
शफाखाना चलाते हैं। यानी उनसे पहले भी उनके खानदान में यह काम होता आया है। तो फिर उनकी सगी बहन उनसे नफरत करके रिश्ता क्यों तोड़ गई? जिस इंस्टीट्यूट से वह जुड़े हुए थे, उसने उन्हें बेइज़्ज़त करके निकाल दिया लेकिन अपनी वसीयत में वह उन्हें ही हक देने चले थे, क्यों...?
कसूर इस फिल्म के निर्माता मृगदीप सिंह लांबा का भी कम नहीं है। ‘फुकरे’
सीरिज़ की दो फिल्में लिख और डायरेक्ट कर चुके बंदे को इतना तो पता होता ही है कि लोगों को हंसाने के लिए, उन्हें कहानी से जोड़ने के लिए क्या-क्या डालना होता है। ओ मृग पा जी, सिर्फ प्रोड्यूसर बन जाना ही काफी नईं होत्ता, अपनी टीम के बंदों की काबलियत पर भी नज़रें रखनी होत्ती हैं। इतना तो ध्यान देते कि कब फिल्म की कहानी ‘गुप्त रोग’ और सैक्स के बारे में ‘बात तो करो’ कहते-कहते ‘सैक्स-एजुकेशन’ की तरफ चली जाती है। अजी कहीं तो अपनी बात में मेडिकल-साईंस का झंडा ऊंचा करते और उन नीम-हकीमों को गरियाते जो देश भर में सड़क किनारे तंबू लगा कर खानदानी दवाखाने खोले बैठे हैं। कोई तो स्टैंड लेते मालको। खुद का बेलैंस बनाने के चक्कर में फिल्म का बेलैंस बिगाड़ गए। भई, बात हो तो कायदे से हो, पूरी तैयारी से हो, वरना क्या ज़रूरत है बात करने की। दुनिया तो चल ही रही है न...!
और अब बात इस फिल्म की डायरेक्टर शिल्पी दासगुप्ता की। बड़ी हिम्मत दिखाई जी आपने कि खुद औरत होकर ऐसी कहानी पर अपनी पहली फिल्म बनाई और उसमें भी एक औरत को ही आगे रखा। मामा जी भानजे को क्लिनिक दे जाते तो मज़ा न आता। लेकिन यह क्या जी कि आपने कहानी कहने के लिए इतना धीमा, सुस्त और सच कहूं तो बोर रास्ता चुना कि पूरी फिल्म के दौरान यह इंतज़ार ही होता रहा कि अब यह फिल्म हमें बांधेगी, अब यह हमें अपने साथ घसीटते हुए ले जाएगी, अब यह हमें गुदगुदाएगी, ठहाके लगवाएगी,
इमोशनल करेगी, हमारे मुंह से वाह-वाह निकलवाएगी। पर मजाल है, जो ऐसा कुछ हुआ हो। फिल्म शुरू होते ही दर्शक को अंगड़ाइयां, उबासियां आने लगें और सवा दो घंटे का वक्त उसे टार्चर महसूस होने लगे तो समझिए कि, मामला गड़बड़ है...!
सोनाक्षी की एक्टिंग में कोई खोट नहीं है। अपने किरदार की ऊंच-नीच को बखूबी पकड़ा है उन्होंने। सोनाक्षी के साथ काम करने को कोई ठीक-सा हीरो राज़ी नहीं हुआ जो इस नए बंदे प्रियांश जोरा को ले लिया? न जी, बंदा ठीक है। बस, सोनाक्षी का छोटा भाई लगता है देखने में। मज़ा तो सोनाक्षी के भाई के रोल में वरुण शर्मा को देख कर आता है। उधर बंदा पर्दे पर आता है और इधर होठों पर मुस्कान आने लगती है। काम तो जी कुलभूषण खरबंदा, अन्नू कपूर, राजेश शर्मा, राजीव गुप्ता और सोनाक्षी की मां बनीं नादिरा बब्बर, सभी का बढ़िया है। रैपर बादशाह भी अपने रोल को निभा ही गए। लोकेशन बहुत उम्दा हैं। गाने ठीक ही हैं। बैकग्राउंड म्यूज़िक काफी ओवर है। पर इन सब का क्या करना है जब फिल्म की कहानी ही आपको कायदे से न छू पाए। जब एक उम्दा विषय आपके सामने यूं बेज़ार-बेकार हो जाए। जब आपको लगे कि चोट हथौड़े वाली होनी चाहिए और कोई यूं हौले से ठकठका कर निकल जाए। ऐसे में कोई कैसे कहे इस फिल्म के बारे में, कि-बात तो करो। न जी, रहने ही दो...!
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है?
रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां,
इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’
के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Very nice hai sir
ReplyDeleteशुक्रिया है जी...
DeleteBahut achchha likhte hain aap.
ReplyDeleteशुक्रिया... आभार...
DeleteWell Said 👌😊
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteमतलब जिस टैबू को तोड़ने की फ़िल्म बात करती है खुद उसमें बंध जाती है 🤔
ReplyDeleteकाफी हद तक...
Deleteबेहतरीन लिखा मालकाे
ReplyDeleteशुक्रिया जी...
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