-दीपक दुआ...
अपने पिछले आलेख में मैंने ज़िक्र किया था कि 1994 में किस तरह से अभिनेता फारूक़ शेख से मेरी
मुलाकात का अजब संयोग बना था। उस मुलाकात में उनसे हुई बातचीत 2 अप्रैल,
1994 के ‘हिन्दुस्तान’ अखबार में छपी। अंश पढ़िए-
आज हिन्दी सिनेमा को दो वर्गों में बांट कर देखा जाता है-कला सिनेमा और व्यावसायिक सिनेमा। आप इस वर्गीकरण से कहां तक सहमत हैं?
ये सब पत्रकारों और मीडिया की बनाई हुई चीज़ है। वो जैसे आदत होती है न कुछ लोगों की एक चीज़ को किसी दायरे में बांध कर देखने की, एक कैप्शन देने की। वैसे ही इन फिल्मों को, जो कुछ हट कर बनाई गई थीं,
लोगों ने आर्ट का नाम दे दिया। आर्ट तो सभी तरह की फिल्मों में है। क्या जो मनमोहन देसाई ने बनाया या सुभाष घई ने बनाया,
उसमें आर्ट नहीं है?
आप विमल रॉय की फिल्में देखिए,
शांताराम की,
गुरुदत्त की फिल्में देखें,
इन सबमें बेशुमार आर्ट है। अब आप ‘ज्यूरासिक पार्क’ को ही ले लीजिए। उसमें कहानी समझ के बाहर है। पर असाधारण आर्ट है उसमें और ये फिल्में व्यावसायिक तौर भी सफल हैं।