Wednesday, 25 March 2020

वेब-रिव्यू : रोमांच की पूरी खुराक ‘स्पेशल ऑप्स’ में

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
13 दिसंबर, 2001-पांच आतंकवादियों ने भारत की संसद पर हमला किया और जवाबी कार्रवाई में मारे गए। लेकिन हमारी खुफिया एजेंसी रॉ के अफसर हिम्मत सिंह की तफ्तीश कहती है कि वहां पर कोई छठा आदमी भी था जो सिर्फ इनका मददगार था बल्कि इनका लीडर भी था। 18 बरस बीत चुके हैं और हिम्मत सिंह आज भी उस शख्स को तलाश रहा है। इस बीच उसने मध्य-पूर्व के कई देशों में अपने एजेंट फिट किए हैं। हिम्मत पर एन्क्वायरी बैठी हुई है कि पिछले कुछ साल में उसने 27 करोड़ रुपए कहां खर्च किए। उधर बहुत जल्द दिल्ली में एक बड़ा हमला होने वाला है। हिम्मत और उसकी टीम सारी घटनाओं के तार जोड़ रही है। क्या कामयाबी मिल पाएगी इन्हें?

खुफिया एजेंटों के कारनामों वाली एक्शन और थ्रिल से भरपूर इस किस्म की कहानियां इधर हिन्दी सिनेमा के पर्दे पर जम कर दिखाई जाने लगी हैं। इन फिल्मों में एक था टाईगर’, ‘टाईगर ज़िंदा है’, ‘ऐय्यारी’, ‘एजेंट विनोद’, ‘फैंटम’, ‘बैंग बैंग’, ‘वॉरजैसी मसालेदार फिल्में शामिल रही हैं तो वहीं मद्रास कैफे’, ‘बेबी’, ‘डी डे’, ‘इंडियाज़ मोस्ट वांटेड’, ‘राज़ीजैसी अपेक्षाकृत रियल लगने वाली वे कहानियां भी जिन्होंने खुफिया एजेंटों के काम करने के तौर-तरीकों के साथ-साथ उनकी निजी ज़िंदगियों में झांकने की कोशिशें भी की हैं। .टी.टी. प्लेटफॉर्म डिज़्नी-हॉटस्टार पर आई स्पेशल ऑप्सनाम की यह वेब-सीरिज़ इन दोनों किस्म की फिल्मों के कहीं बीच खड़ी दिखाई देती है। यानी सीधे कहें तो इसमें आपको कभी बेबीवाला थ्रिल, कभी वॉरवाला एक्शन तो कभी राज़ीवाले तरीके नजर आएंगे।

निर्देशक नीरज पांडेय ने बेबीमें जो कहानी और उसके ज़रिए जो रोमांच परोसा था, यह सीरिज़ उसी कहानी और रोमांच का फैलाव लगती है। करीब 50-50 मिनट के आठ एपिसोड हैं जिनमें से चार नीरज ने और चार उन शिवम नायर ने निर्देशित किए हैं जो बरसां पहले टेलीविजन पर सी हॉक्सजैसे धारावाहिक में अपनी काबलियत दिखा चुके हैं। इन एपिसोड के नाम कागज़ के फूल’, ‘गाइड’, ‘मुगल--आज़म’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘शोलेजैसी क्लासिक फिल्मों के नाम पर रखे गए हैं। क्यों रखे गए हैं, इस पचड़े में पड़े बिना अगर इस कहानी को एन्जॉय करें तो यह आपको ज़्यादा भाएगी। हालांकि शुरू में कुछ समय तक बीते दिनों और मौजूदा समय की कहानी के बीच तालमेल का कन्फ्यूज़न रहता है। कहीं-कहीं यह कहानी फिल्मी भी लगती है कि खलनायक हमारे एजेंट पर पूरी तरह से नज़र क्यों नहीं रख रहा। कुछ और भी छोटे-मोटे किंतु-परंतुजे़हन में आते हैं। साथ ही कहीं-कहीं कुछ चीजें गैरज़रूरी होने का अहसास भी कराती हैं। लेकिन रोमांच के ज़रिए मनोरंजन परोसने के जिस मकसद से यह सीरिज़ बनाई गई है, उसमें यह पूरी तरह से कामयाब रहती है। लगभग अंत तक यह खलनायक के बारे में सस्पेंस बनाए रखती है और क्लाइमैक्स में तो मुट्ठियों में पसीना तक ले आती है। यहीं आकर यह अपने लिखने और बनाने वालों की सफलता का सबूत बन जाती है।

भारत के अलावा तुर्की, अजरबेज़ान और जॉर्डन की लोकेशंस इसे रियल लुक देती हैं तो वहीं कैमरा हर लोकेशन, हर मूवमैंट को बारीकी से पकड़ता है। एक्टिंग के मामले में हर कोई लाजवाब रहा है। शुरू से अंत तक छाए रहे के.के. मैनन हों, खल-किरदार में आए सज्जाद दिलअफरोज़ या फिर कुछ पलों के लिए आए मीर सरवर और सलीम सिद्दिकी जैसे अन्य कलाकार, सभी मिल कर इस कहानी को विश्वसनीय बनाते हैं। थ्रिल और एक्शन पसंद करने वाले दर्शकों के लिए यह सीरिज़ ज़रूर देखने लायक है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सिरीज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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