-दीपक दुआ...
दिल्ली के कलाकारों से मिलने की कोशिशों में ही फोन पर दिल्ली रंगमंच की मशहूर हस्ती रंजीत कपूर (अभिनेता अन्नू कपूर के भाई) से बात हुई। रंजीत जी तब तक रंगमंच के अलावा ‘जाने भी दो यारों’, ‘खामोश’, ‘एक रुका हुआ फैसला’ जैसी फिल्मों के लेखन पक्ष से जुड़ कर खासा नाम कमा चुके थे। उन्होंने अगले ही दिन शाम को अपने घर बुला लिया। 6 फरवरी, 1994, रविवार को तालकटोरा स्टेडियम के करीब पार्क स्ट्रीट पर मैं उनके घर पहुंचा। एक लड़की ने दरवाजा खोला, बिठाया, पानी पिलाया और पूछने पर बताया-पापा तो कहीं गए हैं, देर से आएंगे। कौन थी वह लड़की? क्या उनकी अभिनेत्री पुत्री ग्रूशा कपूर? मैंने पूछा नहीं, उन्होंने बताया नहीं।
1993 का बरस। अपना लिखना-छपना शुरू हो चुका था। शाम को पत्रकारिता में पी.जी. डिप्लोमा की क्लास के साथ-साथ दिन में हिन्दी दैनिक ‘जनसत्ता’ के डेस्क पर खुद को मांजने का दौर चल रहा था। उन दिनों कला और व्यावसायिक यानी आर्ट और कमर्शियल सिनेमा की तकरार चरम पर थी। ऐसे में पत्रकारिता के कोर्स में मैंने अपने प्रोजेक्ट का विषय चुना ‘हिन्दी सिनेमा-कुछ नए आयाम’ और तय किया कि इसके ज़रिए मैं यह स्थापित करने की कोशिश करूंगा कि न दुरूह किस्म का कला और न ही मसालों से भरा व्यावसायिक, बल्कि इन दोनों के बीच का मध्यमार्गी सिनेमा ही भविष्य का सिनेमा होगा। इस प्रोजेक्ट के लिए की गईं ढेरों कोशिशों में से एक थी-छह स्थापित फिल्म समीक्षकों और छह कलाकारों के इंटरव्यू। इसके लिए मैंने एक प्रश्नावली बना कर मुंबई में कुछ कलाकारों, फिल्मकारों को उनके पते पर भेज दी जिनमें से ‘गर्म हवा’ वाले निर्देशक एम.एस. सत्यु का जवाब भी आया। (वह किस्सा यहां क्लिक करके पढ़ें) इसके अलावा दिल्ली के श्रीराम सेंटर जाकर दिल्ली के कलाकारों की एक डायरेक्टरी खरीदी और दिल्ली में मौजूद फिल्म,
टी.वी. और थिएटर से जुड़े लोगों को फोन कर-करके उनसे मिलने की कोशिशें करने लगा। अदाकारा ज़ोहरा सहगल, शर्मिला टैगोर समेत कइयों से फोन पर बात भी हुई लेकिन मुलाकात का संयोग नहीं बन पाया। अजब बात तो यह है कि मुलाकात तो उस शख्स से (आज तक) भी नहीं हुई, जिनके ज़रिए मैं अभिनेता फारूक़ शेख तक जा पहुंचा। जानते हैं कौन थे वो...?
दिल्ली के कलाकारों से मिलने की कोशिशों में ही फोन पर दिल्ली रंगमंच की मशहूर हस्ती रंजीत कपूर (अभिनेता अन्नू कपूर के भाई) से बात हुई। रंजीत जी तब तक रंगमंच के अलावा ‘जाने भी दो यारों’, ‘खामोश’, ‘एक रुका हुआ फैसला’ जैसी फिल्मों के लेखन पक्ष से जुड़ कर खासा नाम कमा चुके थे। उन्होंने अगले ही दिन शाम को अपने घर बुला लिया। 6 फरवरी, 1994, रविवार को तालकटोरा स्टेडियम के करीब पार्क स्ट्रीट पर मैं उनके घर पहुंचा। एक लड़की ने दरवाजा खोला, बिठाया, पानी पिलाया और पूछने पर बताया-पापा तो कहीं गए हैं, देर से आएंगे। कौन थी वह लड़की? क्या उनकी अभिनेत्री पुत्री ग्रूशा कपूर? मैंने पूछा नहीं, उन्होंने बताया नहीं।
मन में निराशा हुई कि रंजीत जी ने खुद ही मिलने का वक्त दिया और अब...! जिज्ञासावश पूछा कि कोई बहुत ही ज़रूरी काम आ गया होगा? जवाब मिला-हां, मुंबई से फारूक़ शेख जी आए हुए हैं न, उनसे मिलने गए हैं। यह सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए क्योंकि फारूक़ साहब को मैं एक पत्र में कुछ सवाल लिख कर पोस्ट कर चुका था और तय था कि अगर उन जैसे अभिनेता का इंटरव्यू मिल सकता तो मेरे प्रोजेक्ट का वज़न बहुत बढ़ जाना था। सो मैंने कुरेदना शुरू किया और पता चला कि फारूक़ साहब क्नॉट प्लेस के होटल ‘हॉलीडे इन’ में रुके हुए हैं और रंजीत जी वहीं गए हैं। बता दूं कि इस ‘हॉलीडे इन’ नाम के फाइव स्टार होटल का बाद में कई बार नाम बदला और आजकल इसे ‘द ललित’ के नाम से जाना जाता है।
घर लौटा और पड़ोस में एक दुकान पर फोन करने जा पहुंचा। उन दिनों मौहल्ले भर में भी किसी-किसी के घर में ही फोन होता था और फोन करने के लिए पी.सी.ओ. बूथ पर जाकर लंबा इंतज़ार करना पड़ता था। पहले वहां से दिल्ली की टेलीफोन डायरेक्टरी लेकर ‘हॉलीडे इन’ होटल का फोन नंबर तलाशा और घुमा दिया नंबर। पता चला कि फारूक़ साहब अपने कमरे में नहीं हैं क्योंकि फोन उठा नहीं रहे हैं। कमरा नंबर पूछने पर कहा गया-सॉरी, यह हम नहीं बता सकते।
घर लौटा और पड़ोस में एक दुकान पर फोन करने जा पहुंचा। उन दिनों मौहल्ले भर में भी किसी-किसी के घर में ही फोन होता था और फोन करने के लिए पी.सी.ओ. बूथ पर जाकर लंबा इंतज़ार करना पड़ता था। पहले वहां से दिल्ली की टेलीफोन डायरेक्टरी लेकर ‘हॉलीडे इन’ होटल का फोन नंबर तलाशा और घुमा दिया नंबर। पता चला कि फारूक़ साहब अपने कमरे में नहीं हैं क्योंकि फोन उठा नहीं रहे हैं। कमरा नंबर पूछने पर कहा गया-सॉरी, यह हम नहीं बता सकते।
अगले दिन सुबह दुकान खुलते ही फिर फोन किया लेकिन बात न हो सकी। उस दिन कई जगह जाना था। दिन भर में जहां भी फोन और फुर्सत, दोनों एक साथ मिले, कोशिश करता रहा लेकिन हर बार यही जवाब मिला कि उनके कमरे में कोई फोन उठा नहीं रहा है। अब मेरे ज़ेहन में यही बात थी पांच इंटरव्यू हो चुके हैं, अगर फारूक़ शेख का इंटरव्यू मिल जाए तो वाह-वाह, वरना फिर से रंजीत कपूर जी से बात करूंगा। रात को देर से घर पहुंचा तो दुकानें बंद हो चुकी थीं। पड़ोस के एक घर में जाकर चिरौरी की और फोन करने की इजाज़त मिल गई। किस्मत देखिए कि इस बार फारूक़ साहब लाइन पर मिल गए। मैंने अपने बारे में बताया और दरख्वास्त की कि अगर आप कुछ मिनट के लिए मिलने की इजाज़त दे दें तो मेरे प्रोजेक्ट की अहमियत बढ़ जाएगी। प्रोजेक्ट का विषय सुना तो बोले-ठीक है, कल दोपहर से पहले आ जाइए,
उसके बाद मुझे बॉम्बे लौटना है। यकीन कीजिए, वह रात नींद के लिए नहीं बनी थी।
अगला दिन-8 फरवरी, 1994। मैं पिछली रात ही पड़ोस में रहने वाले फोटोग्राफर अनिल चोपड़ा जी से बात कर चुका था कि जिन्होंने तब और बाद में भी मेरे संघर्ष के दिनों में हमेशा मेरा साथ दिया,
बिना किसी लालच, बिना किसी स्वार्थ के। लेकिन यह दिन तो कुछ और ही रंग बिखेर रहा था। क्रिकेट के दीवाने अनिल चोपड़ा जी टी.वी. के सामने जमे हुए थे-‘बस यार, कपिल एक विकेट और ले ले, फिर चलते हैं।’
और जैसे ही कपिल पा‘जी की गेंद पर संजय मांजरेकर ने तिलकरत्ने को लपका, इतिहास बन गया। अपना 432वां टैस्ट विकेट लेकर कपिल देव ने रिचर्ड हेडली का रिकॉर्ड तोड़ दिया था।
चोपड़ा जी की स्कूटर पर जैसे ही हम दोनों निकले तो बारिश शुरू हो गई। लग रहा था कुदरत इम्तिहान लेने पर उतारू है। खैर,
किसी तरह से हम लोग हॉलीडे इन पहुंचे। देर होने के डर से मुझे लग रहा था कि कहीं फारूक़ साहब चले न गए हों। कमरा नंबर 1809 की घंटी बजाई तो काफी देर तक दरवाज़ा नहीं खुला। धड़कनें बढ़ चुकी थीं। तभी वहां से गुज़र रहे एक कर्मचारी ने बताया कि ‘गैस्ट’
अंदर ही हैं,
उन्होंने अभी नाश्ता ऑर्डर किया है, शायद बाथरूम में हैं, आप इंतज़ार कर लीजिए। कुछ देर बाद फिर से घंटी बजाई। फौरन दरवाज़ा खुला और सामने थे-फारूक़ शेख। गोरे-चिट्टे, सौम्य और होठों पर लंबी मुस्कान। खूब गर्मजोशी से मिले। बिठाया, चाय-नाश्ता करवाया, ढेरों बातें कीं, खूब सारे फोटो खिंचवाए,
उनके ऑटोग्राफ भी लिए जिससे यह ज़ाहिर हुआ कि वह ‘फारुख’
नहीं बल्कि ‘फारूक़’
हैं।
फारूक़ साहब के साथ हुई वह बातचीत मेरा प्रोजेक्ट पूरा होने से पहले ही दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में छपी। इससे मेरे प्रोजेक्ट को और बल मिला। बाद में उनसे कई बार मुलाकात हुई। एक बार उन्हें उस पहली मुलाकात का हवाला दिया तो हाथ पकड़ कर अलग ले गए और काफी देर तक बातें करते रहे। मेरी तरक्की पर खुश थे। 1 दिसंबर, 2013 को प्रैस क्लब में उनकी फिल्म ‘क्लब 60’ की प्रैस-कांफ्रैंस थी। मुझे भी बुलावा आया। एक तो प्रैस क्लब, जहां हर कांफ्रैंस में फुकरे घुस जाते हैं, ऊपर से इतवार का दिन और अपनी शादी की सालगिरह। जाने का सवाल ही नहीं था। लेकिन पता चला कि फारूक़ साहब भी आ रहे हैं। सो, चला गया और एक बार फिर उनसे रूबरू हुआ। लेकिन तब यह नहीं पता कि उनसे यह अपनी आखिरी मुलाकात होगी। इसके कुछ ही दिन बाद 28 दिसंबर को फारूक़ साहब चले गए।
फारूक़ साहब के साथ हुई वह बातचीत मेरा प्रोजेक्ट पूरा होने से पहले ही दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में छपी। इससे मेरे प्रोजेक्ट को और बल मिला। बाद में उनसे कई बार मुलाकात हुई। एक बार उन्हें उस पहली मुलाकात का हवाला दिया तो हाथ पकड़ कर अलग ले गए और काफी देर तक बातें करते रहे। मेरी तरक्की पर खुश थे। 1 दिसंबर, 2013 को प्रैस क्लब में उनकी फिल्म ‘क्लब 60’ की प्रैस-कांफ्रैंस थी। मुझे भी बुलावा आया। एक तो प्रैस क्लब, जहां हर कांफ्रैंस में फुकरे घुस जाते हैं, ऊपर से इतवार का दिन और अपनी शादी की सालगिरह। जाने का सवाल ही नहीं था। लेकिन पता चला कि फारूक़ साहब भी आ रहे हैं। सो, चला गया और एक बार फिर उनसे रूबरू हुआ। लेकिन तब यह नहीं पता कि उनसे यह अपनी आखिरी मुलाकात होगी। इसके कुछ ही दिन बाद 28 दिसंबर को फारूक़ साहब चले गए।
चलते-चलते : रंजीत कपूर साहब के घर न गया होता, वहां ग्रूशा कपूर से मुलाकात न हुई होती तो फारूक़ साहब से मिलने का रास्ता न खुलता। रंजीत साहब से आज तक भी मेरी मुलाकात न हुई। ग्रूशा जी से भी उसके बाद कभी मिलना न हो सका जबकि आगे चल कर उन्होंने ढेरों धारावाहिकों और फिल्मों से अपने लिए ख्याति अर्जित की। इनसे कभी मुलाकात होती तो मैं इन्हें यह किस्सा बता कर इनका शुक्रिया अदा करता जैसे मैंने एम.एस. सत्यु साहब को 17 साल बाद शुक्रिया बोला था। (वह किस्सा फिर कभी) खैर, इस आलेख के ज़रिए मैं इनका शुक्रिया अदा करता हूं। रही फारूक़ साहब से हुई वह बातचीत,
तो उसे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी.
से भी जुड़े हुए हैं।)
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