-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
‘पिता-वह मूर्ख प्राणी जो अपने बच्चों की खुशी के लिए किसी भी हद तक जा सकता है’ की टैगलाइन के साथ शुरू होने वाली यह फिल्म राजस्थान के उदयपुर की तारिका बंसल की लंदन के एक मशहूर और महंगे कॉलेज में पढ़ने की ख्वाहिश को पूरा करने की उसके पिता चंपक बंसल की कोशिशों और संघर्ष को दिखाती है। अपना सब कुछ दांव पर लगा कर भी चंपक अपनी बेटी के सपने को पूरा करने में जुटा रहता है। उसे लगता है कि अपनी पत्नी के आगे पढ़ने का सपना न पूरा करके उसके जो गुनाह किया है, अपनी बेटी की इच्छा पूरी करके वह उसका प्रायश्चित कर सकेगा।
पहली बात तो यह कि इस फिल्म की कहानी का ‘हिन्दी मीडियम’ की कहानी से कोई नाता नहीं है। हां, दोनों का फ्लेवर ज़रूर एक-सा है। उस फिल्म में जहां अपने बच्चे को अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ाने के लिए पुरानी दिल्ली का एक कारोबारी दिल्ली के पॉश इलाके में शिफ्ट होता है वहीं इस बार अपनी बेटी के लिए उदयपुर का यह हलवाई लंदन में शिफ्ट हो रहा है। आज के दौर में अंग्रेज़ी के ज्ञान, आधुनिकता, आज़ादख्याली,
बुज़ुर्गां की देखभाल, अपनों से मिल-जुल कर रहने,
भाइयों के प्यार जैसी ढेरों बातें यह फिल्म अपने अंदर समेटे हुए है। ये बातें जहां इस फिल्म को समृद्ध बनाती हैं वहीं इन सारी बातों की ‘भीड़’ इस फिल्म को कमज़ोर भी करती है। एक साथ बहुत कुछ समेटने के चक्कर में अक्सर मामले बिखर जाया करते हैं।
फिल्म हास्य का फ्लेवर लिए हुए है इसलिए कई जगह ‘किंतु-परंतु’ की गुंजाइश अनदेखी की जा सकती है। लेकिन चार-चार लेखकों की ‘मेहनत’
से तैयार हुई इस फिल्म में ऐसा बहुत कुछ है जो मिसफिट है,
गैरज़रूरी है, इसलिए अखरता है, चुभता है और फिल्म को खराब करता है। कहानी कई जगह पटरी छोड़ प्लेटफॉर्म पर जा चढ़ती है और वहां भी चलने की बजाय बैंच पर बैठ कर सुस्ताने लगती है। अरे, अगर लंबी कहानी नहीं है तो किसने कहा है कि 145 मिनट लंबी फिल्म बनाओ। दो घंटे की फिल्में भी तो होती हैं न...! निर्देशक होमी अदजानिया कई जगह उम्दा सीन बनाते हैं तो कई जगह चीज़ों को संभाल भी नहीं पाते।
इस फिल्म को देखे जाने की पहली और सबसे बड़ी वजह इरफान का अभिनय
हो सकता है। अपनी बीमारी के बावजूद उन्होंने चंपक के अपने किरदार को कस कर पकड़ा है।
दूसरे नंबर पर दीपक डोबरियाल जंचते हैं। राधिका मदान कहीं-कहीं बहुत उम्दा तो अचानक
से एकदम खराब लगने लगती हैं। रणवीर शौरी, कीकू शारदा, ज़ाकिर हुसैन
आदि लुभाते हैं तो वहीं मनु ऋषि, पंकज त्रिपाठी, तिलोत्तमा
शोम जैसे कलाकारों को ज़ाया करती है यह फिल्म। डिंपल कपाड़िया और करीना कपूर को कुछ देर
के लिए देखना सुहाता है। यह भी इस फिल्म की कमज़ोरी ही कही जाएगी कि चुन-चुन कर उम्दा
कलाकार तो ले लिए लेकिन उनके कद के मुताबिक किरदार नहीं गढ़े गए। गीत-संगीत साधारण है।
दरअसल यह फिल्म भी साधारण ही है, बस इसे इरफान और दीपक डोबरियाल का अभिनय ही पार
लगाता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बहुत खूब बड़े भाई, अच्छा रिव्यू है।
ReplyDeleteApke reviews pd kr movie dekhne jati hu
ReplyDeleteThanks for review
99.99 % Accurate review....also like "Gaagar me Saagar" Great creative job
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