-दीपक दुआ...
अपने पिछले आलेख में मैंने ‘गर्म हवा’ जैसी कालजयी फिल्म बनाने वाले एम.एस. सत्यु के उस खत का ज़िक्र किया था जो उन्होंने मेरे खत के जवाब में मुझे लिखा था और उसके करीब 17 साल बाद गोआ में मैंने उन्हें इसके लिए शुक्रिया कहा था। (वह आलेख यहां क्लिक करके पढ़ें)
दरअसल वह पत्र मैंने सत्यु साहब को अपने पत्रकारिता के कोर्स के प्रोजेक्ट के सिलसिले में एक प्रश्नावली की शक्ल में भेजा था जिसमें मैंने ‘कला सिनेमा’ और ‘व्यावसाहिक सिनेमा’ के वर्गीकरण, सिनेमा में आते बदलाव, उन्हें मिलते सरकारी प्रश्रय, सिनेमा के भविष्य आदि पर सवाल पूछे थे और सत्यु साहब ने प्रश्नावली के हर सवाल का अलहदा जवाब देने की बजाय अपने खत में उन सारे बिंदुओं पर अपनी बात रखी थी। उस पत्र का हिन्दी अनुवाद यह रहा :-
‘‘प्रिय दीपक दुआ,अपने पिछले आलेख में मैंने ‘गर्म हवा’ जैसी कालजयी फिल्म बनाने वाले एम.एस. सत्यु के उस खत का ज़िक्र किया था जो उन्होंने मेरे खत के जवाब में मुझे लिखा था और उसके करीब 17 साल बाद गोआ में मैंने उन्हें इसके लिए शुक्रिया कहा था। (वह आलेख यहां क्लिक करके पढ़ें)
दरअसल वह पत्र मैंने सत्यु साहब को अपने पत्रकारिता के कोर्स के प्रोजेक्ट के सिलसिले में एक प्रश्नावली की शक्ल में भेजा था जिसमें मैंने ‘कला सिनेमा’ और ‘व्यावसाहिक सिनेमा’ के वर्गीकरण, सिनेमा में आते बदलाव, उन्हें मिलते सरकारी प्रश्रय, सिनेमा के भविष्य आदि पर सवाल पूछे थे और सत्यु साहब ने प्रश्नावली के हर सवाल का अलहदा जवाब देने की बजाय अपने खत में उन सारे बिंदुओं पर अपनी बात रखी थी। उस पत्र का हिन्दी अनुवाद यह रहा :-
मैं आज तक नहीं समझ पाया कि कौन-कौन सी चीज़ें मिल कर एक फिल्म को ‘कला सिनेमा’ का दर्जा देती हैं। ऐसा कोई भी सिनेमा नहीं है जिसमें कुछ व्यावसायिकता न होती हो।
सिनेमा सिर्फ वही प्रासंगिक है जो समाज के प्रति ज़िम्मेदार हो। एक दूसरा सिनेमा है जो मनोरंजन के लिए है। पर ज़रूरत दोनों तरह के सिनेमा की है। इनमें से एक के दर्शक सीमित हैं तो दूसरे के बहुत ज़्यादा। पर दोनों को देखने के लिए पैसा चुकाना पड़ता है। कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता।
हमारी सरकार अच्छे सिनेमा को बढ़ावा देने के लिए कोई बहुत ज़्यादा कोशिशें नहीं कर रही है। और मैं
सरकारी संस्थानों से ज़्यादा मदद की उम्मीद भी नहीं करता। सरकार का योगदान सिर्फ फिल्मों को अवार्ड देने तक ही सीमित है और वो भी इसलिए ताकि ये फिल्में भारत में या बाहर होने वाले फिल्मोत्सवों में चुनी जा सकें। ज़्यादा से ज़्यादा कुछ राज्य सरकारें अच्छी फिल्मों को मनोरंजन-कर से मुक्त कर देती हैं। कुछ राज्य सरकारें क्षेत्रीय भाषा में बनी फिल्मों को अनुदान देकर भी बढ़ावा देती हैं।
वे लोग जिनमें उच्च कला के प्रति गहरा सम्मान है और जो कुछ आदर्शों के प्रति समर्पित हैं, वे हमेशा अच्छी फिल्में बनाते रहेंगे। पर ऐसे लोगों की तादाद दुनिया में बहुत कम है।
पुरानी और नई फिल्मों में एक ज़रूरी अंतर तो तकनीक के स्तर पर आया ही है। आजकल ज़्यादा सैक्स और हिंसा भी देखने को मिल रही है क्योंकि आजकल लोग ज़्यादा हिंसक और अव्यवस्थित हो रहे हैं।
-एम.एस.सत्यु’’
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
No comments:
Post a Comment