-दीपक दुआ...
एम.एस. सत्यु-‘गर्म हवा’ वाले एम.एस. सत्यु। सिर्फ यही एक फिल्म काफी है उनका परिचय देने के लिए,
उन्हें विश्व सिनेमा के इतिहास में अमरत्व प्रदान करने के लिए। वही मैसूर श्रीनिवास सत्यु आज 6 जुलाई को नब्बे के हो गए। उन्हीं से जुड़ा मेरा एक यादगार संस्मरण जब मैंने उनसे कहा था-‘सर आपको 17 साल पुराना एक शुक्रिया अदा करना है...!’
पिछले दिनों अभिनेता फारूक़ शेख से 1994 में हुई अपनी पहली मुलाकात का ज़िक्र करते हुए मैंने लिखा था कि उन दिनों पत्रकारिता के कोर्स में मैंने अपने प्रोजेक्ट के लिए एक प्रश्नावली बना कर मुंबई में कुछ कलाकारों,
फिल्मकारों को उनके पते पर भेजी थी जिनमें से सिर्फ ‘गर्म हवा’ वाले निर्देशक एम.एस. सत्यु का जवाब आया था। (फारूक़ शेख वाली वह पोस्ट यहां क्लिक करके पढ़ी जा सकती है)। सत्यु साहब ने प्रश्नावली के हर सवाल का अलहदा जवाब देने की बजाय अपने खत में सारे बिंदुओं पर अपनी बात रखी थी। उस पत्र को मैंने अपने प्रोजेक्ट में शामिल किया था और मेरे प्रोजेक्ट के अव्वल आने के पीछे उस खत का भी बड़ा हाथ था। उस पत्र को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
और अब बात तकरीबन 17 साल बाद सत्यु साहब से हुई उस पहली मुलाकात की। 2011 के नवंबर में मैं पत्रकार भाई सरफराज़ सिद्दिकी के साथ गोआ में था। सोचा था कि ‘इफ्फी’ यानी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया को कवर करेंगे,
कुछ जानदार फिल्में देखेंगे, कुछ शानदार लोगों से मिलेंगे और साथ ही साथ गोआ भी घूमेंगे। लेकिन यहां आते ही मुझे फिल्म समारोह में रोज़ाना छपने वाले ‘इफ्फी बुलेटिन’ में संपादक के सहायक की ज़िम्मेदारी मिल गई और इसी वजह से मुझे यह पता चल गया कि समारोह में सत्यु साहब भी आए हुए हैं। उनकी प्रैस-कांफ्रैंस की खबर मेरे ही हाथों से होकर बुलेटिन में छपी थी और उनसे रूबरू होने की ख्वाहिश तभी से मेरे मन में ज़ोर पकड़ने लगी थी। और संयोग से वो वक्त भी जल्द आ गया।
28 नवंबर, 2011 की सुबह मैं और सरफराज़ भाई पणजी के आइनॉक्स थिएटर से कला अकादमी की तरफ पैदल जा रहे थे कि दूर से आते हुए बुज़ुर्गवार की सूरत जानी-पहचानी सी लगी। मेरे ज़ेहन में झट से कौंधा-अरे, यह तो सत्यु साहब हैं। वह पैदल ही कला अकादमी की तरफ से आ रहे थे,
अकेले। मैंने उन्हें नमस्कार कर के रोकना चाहा। उन्होंने नमस्ते का जवाब तो दिया लेकिन रुके नहीं। फिल्मी लोगों के लिए राह चलते अनजान लोगों से यूं अभिवादन लेना कोई नई या अनोखी बात तो होती नहीं है। अचानक मेरे मुंह से निकला-‘सर आपको 17 साल पुराना एक शुक्रिया अदा करना है...!’ सुनते ही वह जड़ हो गए और मुझे गौर से देखने लगे मानो कुछ याद करने की कोशिश कर रहे हों। लेकिन मैंने उन्हें फौरन इस उहापोह से बाहर निकाला और कहा कि मैं आपसे पहले कभी नहीं मिला और उन्हें उस पत्र की कहानी सुनाई जो उन्होंने मुझे लिखा था। वह मुस्कुराए,
हंसे और आशीर्वाद भी दिया। वहीं सड़क पर उन के साथ चंद बातें भी हुईं और कुछ तस्वीरें भी। दो साल पहले ‘स्टोरीटेल’ के लिए फिल्म ‘गर्म हवा’ पर एक ऑडियो एपिसोड बनाते समय मैंने उन्हें भरपूर याद किया। आज उनके नब्बे वर्ष पूरे होने पर सत्यु साहब फिर से मुझे याद आ रहे हैं। वह लंबी और स्वस्थ उम्र जिएं, मैं यह दुआ करता हूं।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
वाह. ऐसे वाकये ज़िन्दगी को खूबसूरत बनाते हैं. कभी-कभी शुक्रिया अदा करने में बरसों गुज़र जाते हैं. और कभी-कभी हम ये कभी नहीं कर पाते. आप किस्मत वाले हैं कि वक़्त रहते आपका शुक्रिया सत्यु साहब तक पहुंच गया. इन दिनों जब फिल्मों पर बात अधिक नहीं हो पा रही है तो आप अपने तमाम अनुभव इसी तरह साझा कर सकते हैं. लिखते रहे.
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