कल्पना कीजिए कि (मरने के बाद हम कहां जाते हैं, इसकी सिर्फ कल्पना ही हो सकती है) मरने के बाद इंसान अंतरिक्ष में घूम रहे बहुत सारे स्पेस-शिप्स में से किसी एक में जाते हैं। वहां मौजूद एजेंट उनका सामान रखवा कर,
उन्हें ठीक करके, उनकी यादें मिटा कर,
फिर से उन्हें इस दुनिया में भेज देते हैं। ये मरे हुए इंसान इन एजेंट्स के लिए ‘कार्गो’ हैं यानी एक पार्सल, जिन्हें अगले ठिकाने तक पहुंचाना इन एजेंट्स का काम है। आप कह सकते हैं कि वाह, क्या अनोखा कॉन्सेप्ट है...! इस पर तो अद्भुत साईंस-फिक्शन बन सकती है। और चूंकि विषय मृत्यु के बाद का है तो इसमें दार्शनिकता भी भरपूर डाली जा सकती है। पर क्या ‘नेटफ्लिक्स’ पर आई यह फिल्म ऐसा कर पाने में कामयाब रही है?
यह फिल्म आईडिया के स्तर पर बुरी नहीं है। लेकिन हर अच्छे आईडिए पर एक अच्छा विषय खड़ा किया जा सके,
उसे कायदे से फैलाया जा सके, उसमें से कोई उम्दा बात निकल कर आ सके,
वह आप पर प्रभाव छोड़ सके, यह ज़रूरी नहीं। यह फिल्म अपने आईडिए के बाद हर स्तर पर निराश करती है। साल बताया गया है 2027 यानी अब से सिर्फ 7 साल बाद विज्ञान की दुनिया इतनी ज़्यादा एडवांस हो चुकी होगी कि इंसान (असल में राक्षस) स्पेस में आराम से रह रहा होगा, उसे वहां रहते हुए भी 75 बरस बीत चुके होंगे, राक्षसों और मनुष्यों में संधि हो चुकी होगी (हैं कौन ये राक्षस?), राक्षस इन स्पेस-शिप्स में एजेंट बन चुके होंगे जिन्हें ज़मीन पर बैठे सरकारी रवैये वाले बाबू कंट्रोल कर रहे होंगे, ये बाबू अपनी शादी की 134वीं सालगिरह मना रहे होंगे, इन लोगों के पास आधुनिक तकनीक होगी लेकिन इनके उपकरण बेहद थके हुए होंगे, इन ‘राक्षसों’ के पास कोई न कोई शक्ति भी होगी लेकिन उसका कोई इस्तेमाल ये लोग नहीं कर रहे होंगे, जिस लड़की की शक्ति खत्म हो चुकी बताई जा रही होगी वह भी दरअसल एक टार्च जैसी मशीन ही इस्तेमाल कर रही होगी, सब लोगों के नाम पौराणिक पात्रों के नामों पर होंगे, सिर्फ हिन्दू नाम वाले लोग (कार्गो) ही मर कर स्पेस-शिप में पहुंचेंगे बाकी की कोई बात नहीं होगी, वहां भी इनके पाप-पुण्य का कोई हिसाब नहीं होगा बल्कि हर किसी को पूरी इज़्ज़त के साथ तुरंत पुनर्जन्म दे दिया जाएगा.... हो क्या रहा है भाई?
चलिए, मान लिया कि ये सब तो रूपक हैं। कहानी दरअसल गूढ़ बातें कहती है। लेकिन सवाल उठता है कि कौन-सी गूढ़ बातें? मरने के बाद की बातें?
लेकिन एक-दो को छोड़ किसी भी कार्गो के जीवन में तो आपने झांका ही नहीं, उनसे बात तक नहीं की,
पता नहीं कागज़ पर क्या नोट करते रहे। हां,
इन एजेंट्स की ज़िंदगी के अकेलेपन को आपने ज़रूर दिखाया। असली कहानी तो आपने इन एजेंट्स की दिखाई, मरने वालों की नहीं।
नेटफ्लिक्स की वेबसाइट पर इस फिल्म को ‘कॉमेडी’ लिखा गया है। जबकि सच यह है ज़्यादातर समय महज़ एक सैट पर फिल्माई गई इस फिल्म में कॉमेडी सिरे से गायब है। हां, बोरियत के ढेरों अहसास हैं इसमें। पहले एक घंटे तक चल क्या रहा है, यही समझ में नहीं आता। कोई एक्साइटमैंट नहीं, कोई मैसेज नहीं, कोई करतब नहीं। दार्शनिकता का पाठ ही ठीक से पढ़ा देतीं राईटर-डायरेक्टर आरती कदव, तो कोई बात बनती। अलबत्ता विक्रांत मैसी और श्वेता त्रिपाठी ने अपने किरदारों को कायदे से निभाया।
हर अलग बात को बिना समझे उसकी वाहवाही करने वाले बुद्धिजीवी दर्शकों को भी यह फिल्म शायद ही समझ में आई हो। आई हो तो कृपया समझाने का कष्ट करें। बाकी लोग इससे दूर रहें।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Love story 2020 bhi science ki imagination thi or flop
ReplyDeleteProducers aisi movies pe paisa lgakr risk kyo lete h
ReplyDeleteJane kyun expensive but barbad harkate karte hain ye log...Is se achha kisi jaruratmand ki madad hi kar den🙄thank u sir bacha lia apne
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