Saturday 5 September 2020

वेब रिव्यू-सच और फंतासी की उड़ान ‘जे एल 50’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
कोलकाता से उड़ा एक हवाई जहाज गायब हो गया है। कुछ खास लोग भी हैं उसमें। तभी पता चलता है कि उत्तर-पूर्व की पहाड़ियों में एक प्लेन क्रैश हुआ है। सी.बी.आई. वाले वहां पहुंचते हैं तो पाते हैं कि यह तो कोई और हवाई जहाज है। मालूम होता है कि यह वाला प्लेन 35 साल पहले गायब हो गया था। इसमें दो लोग ज़िंदा मिलते हैं। क्या ये लोग सचमुच 35 साल पुराने वाले असली लोग हैं? क्या यह प्लेन अभी तक टाइम-ट्रैवल कर रहा था? क्या सचमुच यह विज्ञान का कोई करतब है? या फिर कोई बहुत बड़ी साज़िश?

बरसों पहले खबरें छपी थीं कि जर्मनी से 1954 में उड़ा एक जहाज 35 साल बाद 1989 में किसी एयरपोर्ट पर चुपचाप उतर गया। अंदर जाकर देखा गया तो पायलट समेत सारी सीटों पर कंकाल बैठे हुए थे। यह खबर छपी तो बहुत जगह थी लेकिन कभी इसकी पुष्टि हो सकी। ठीक वैसे, जैसे दूसरे ग्रहों से आए लोगों और उड़नतश्तरियों को देखे जाने की खबरें तो बहुत आती हैं लेकिन किसी आधिकारिक मंच से इनकी पुष्टि नहीं की जाती। अब सच क्या है, है भी या नहीं, ये तो वैज्ञानिक जानें या सरकारें, हम जैसे आम लोग तो बस खबरें पढ़-सुन कर ही रोमांचित हो सकते हैं। सोनी लिव पर आई यह वेब-सिरीज़ भी ऐसी ही है।

वैसे यह एक मिनी-सिरीज़ है, आधे-आधे घंटे के महज़ चार एपिसोड हैं इसमें जिनमें परत-दर-परत कहानी खुलती है। शैलेंद्र व्यास ने जो कहानी लिखी है वह इन दिनों रही वेब-सीरिज़ से काफी हट कर है और बहुतइंटेलिजैंटकिस्म की है। हकीकत में विज्ञान फंतासी और इतिहास के मेल को बड़ी ही
बारीकी से पिरोया गया है। हालांकि इसे देखते हुए यह क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, ऐसा कैसे हो सकता है, ऐसा हुआ तो क्या होगा, जैसे ढेरों सवाल मन में उठते हैं और दिमाग इनके जवाब तलाशने की मशक्कत भी करता है। लेकिन जब विज्ञान ही अभी तक इन सवालों के स्पष्ट जवाब नहीं तलाश पाया तो बेहतर है कि इन सवालों को किनारे रख कर, जो दिखाया जा रहा है, उसके मज़े लिए जाएं नहीं तो इसे देखने का रोमांच कम हो जाएगा। वैसे भी बतौर निर्देशक शैलेंद्र व्यास रोमांच और तनाव की मात्रा को उस स्तर तक नहीं ले जा पाए हैं जो इस किस्म की कहानी की सबसे बड़ी ताकत होता है। स्क्रिप्ट में भी दो-एक लोचे हैं, संवाद हल्के हैं और अंत समझने के लिए ज़ोर लगाना पड़ता है। मगर इन सबके बावजूद यह एक देखने लायक सिरीज़ है और वो भी एक ही सिटिंग में।

अभय देओल अपनी सॉफ्ट पर्सनेलिटी के चलते इस किस्म के किरदारों में जंचते हैं। उन्होंने अपने काम को बखूबी अंजाम भी दिया है। राजेश शर्मा और पीयूष मिश्रा का काम भी अच्छा है लेकिन उन्हें दमदार सीन ही नहीं मिले। शो की निर्मात्री रितिका
आनंद ने भी अपने रोल को ठीक से निभाया। लेकिन जिस एक कलाकार की एक्टिंग इस शो को आसमान तक ले जाती है, वह बेशक पंकज कपूर हैं। किरदार को उसकी नींव तक जाकर पकड़ते हैं वह। कुछ हट कर, कुछ पेचीदा, कुछ दिमाग लगा कर देखना चाहें तो यह सिरीज़ आपके लिए है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सिरीज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

3 comments:

  1. Okay ji...Bade din ho gye...Dimag ki exercise nai hue..chaliye kuchh kar ke dekhen... Dhanyavad

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  2. ज़रूर देखी जाएगी अब भाईसाब

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  3. I am a huge fan of Pankaj kapoor...and Abhay Deol too...so will definitely see..on your recommendation

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