किसी गांव की प्राथमिक पाठशाला में एक मास्साब (मास्टर साहब) आए। आए तो पाठशाला की हालत खस्ता थी। असली की जगह नकली टीचर पढ़ा रहे थे। बच्चे भी बस मिड-डे मील के लालच में आते, घटिया खाना खाते और निकल लेते। मास्साब ने सुधार लाने शुरू किए तो धीरे-धीरे पाठशाला के साथ-साथ वहां के बच्चों, उस गांव और गांव के लोगों तक में सुधार आने लगा। कुछ समय बाद जब मास्साब वहां से विदा हुए तो पूरे गांव की आंखों में आंसू थे।
पढ़ने-पढ़ाने और शिक्षा व्यवस्था की खामियों पर आने वाली फिल्मों में अक्सर उपदेश रहते हैं या फिर नाटकीयता। लेकिन यह फिल्म थोड़ी-सी अलग है। इसमें यह नहीं बताया जाता कि पढ़ाई कितनी ज़रूरी है या फिर जीवन में आगे बढ़ने के लिए कैसे पढ़ा जाए। बल्कि यह फिल्म बताती है कि पढ़ाना कितना ज़रूरी है और बच्चों के जीवन को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें कैसे पढ़ाया जाना चाहिए। बतौर लेखक आदित्य ओम और शिवा सूर्यवंशी सराहना के हकदार हैं।
हालांकि फिल्म कमियों से अछूती नहीं है। स्क्रिप्ट के स्तर पर काफी कुछ कसा जा सकता था। संपादन भी कहीं-कहीं ढीला रहा है। लेकिन इससे फिल्म की ईमानदारी और निर्देशक आदित्य ओम की कहानी कहने के प्रति नेकनीयती पर असर नहीं पड़ता। उन्होंने कहानी को प्रभावी ढंग से और पूरी सहजता से पर्दे पर उतारा है-बिना किसी लाग-लपेट के, बिना किसी एजेंडे के। यही कारण है कि इस फिल्म को देखते हुए आप कई जगह भावुक होते हैं,
आपकी आंखों में नमी आती है और बार-बार आपको यह लगता है कि अगर सभी मास्टर लोग इस फिल्म के मास्साब की तरह पढ़ाने लगें तो हमारे बच्चे कितने सजग हो सकते हैं।
शिवा सूर्यवंशी ने नायक आशीष कुमार की भूमिका को बहुत ही सहजता से निभाया है। शीतल सिंह जंची हैं। बाकी के तमाम कलाकार भी अपने कच्चेपन के बावजूद असर छोड़ते हैं। अभी यह फिल्म बहुत सारे शहरों में सिनेमाघरों पर आई है। जल्द ही किसी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर भी यह दिखेगी।
इस किस्म की फिल्मों को बनाने वाले इसलिए भी प्रशंसा के पात्र हो जाते हैं कि बेहद कम संसाधनों और लगभग अनगढ़ कलाकारों के साथ वह अपनी बात को प्रभावी ढंग से कह जाते हैं। इस फिल्म को उन तमाम शिक्षकों को भी दिखाया जाना चाहिए जिन्होंने मास्टरी को महज़ एक ‘नौकरी’ समझ कर चुना और पढ़ाने को सिर्फ एक ‘काम’। सोच बदलने का दम रखती हैं ऐसी फिल्में।(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
The praise of this film is also less. It is a very emotional and inspiring film.
ReplyDeleteSir, thanks to share for this film and your opinion
ReplyDeleteSuch A Nice Movie
ReplyDeleteNice review of a must watch film. Very inspiring.
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