Saturday, 16 January 2021

रिव्यू-चौथे पर ही निबट जाती है ‘रामप्रसाद की तेहरवीं’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
रामप्रसाद जी सिधार गए। अब उनके चारों बेटे, बहुएं, दोनों बेटियां, दामाद, उन सब के बच्चे, मामा, ताऊ, अलां-फलां पहुंचे हैं लखनऊ। अब आएं हैं तो तेहरवीं तक भी रुकेंगे ही। वैसे कभी इन्होंने रिश्तों को गर्माहट दी लेकिन अब इन्हें फिक्र है पैसों की, कर्जे की, दुकान-मकान की और मां को कौन रखे, इसकी। अब तेरह दिन साथ रहेंगे और दो नई बातें होंगी तो चार पुरानी भी खोदी ही जाएंगी। उलझे हुए रिश्तों की सलवटें भी सामने आएंगी और मुमकिन है कि कुछ सुलझ ही जाए, कोई टूटा तार जुड़ कर इनकी ज़िंदगी के सुर सही बिठा ही दे।
 
हम लोगकी बड़की दीदी यानी सीमा पाहवा की लिखी कहानी में दम है। इसमें हर वह बात है जो आम भारतीय परिवारों के ऐसे किसी मिलन के समय देखने-सुनने में आती है। शादी-ब्याह हो या जन्म-मरण, जब भी सारे रिश्तेदार महीनों-सालों के बाद एक जगह मिलते हैं तो ऐसा ही माहौल बनता है जैसा इस फिल्म में दिखाया गया। जिस काम के लिए आए है, अक्सर वह पीछे रह जाता है और रिश्तों के बीच की दरारें, रंजिशें, स्वार्थ, अहं आदि उभर कर ऊपर जाते हैं।
 
इस फिल्म में सीमा ने परिस्थितियों और किरदारों को बखूबी गढ़ा है। हक जताने वाले मामा, मुंह फुलाने वाले जीजा, ‘मेरे साथ भेदभाव हुआ-तू तो उनका लाड़ला था, ‘हम यह, तुम वोटाइप की बातें मिल कर इस फिल्म को दर्शक के करीब ले जाती हैं। लगता है कि आप कुछ ऐसा देख रहे हैं जो आपने हमेशा से अपने आसपास होते देखा है। कहानी और किरदारों का यह जुड़ाव फिल्म के प्रति लगाव उत्पन्न करता है। दिक्कत तब आती है जब ये बातें दो-एक बार के बाद दोहराई जाने लगती हैं, जब इनमें से कुछ निकल कर नहीं आता है और जब सब कुछ सूखा-रूखा लगने लगता है। हालांकि एक अच्छी कहानी को पटकथा के तौर पर सीमा ने बखूबी फैलाया है लेकिन उसे समेटने में उनसे चूक हो गई। फिल्म का ट्रेलर जो बयान करता है, फिल्म वैसी नहीं लगती। लग रहा था कि कुछ तगड़ा हास्य होगा, आपसी रिश्तों पर व्यंग्य होगा। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। कुछ हार्ड-हिटिंग होता तो भी फिल्म संभल जाती।
 
बतौर डायरेक्टर सीमा ने अपना काम बखूबी निभाया है। बहुत सारे सीन हैं जहां वह असर छोड़ती हैं। कलाकार भी उन्होंने सारे के सारे बढ़िया लिए और इन तमाम लोगों-नसीरुद्दीन शाह, सुप्रिया पाठक, मनोज पाहवा, निनाद कामद, विनय पाठक, प्रमब्रत चटर्जी, कोंकोणा सेन शर्मा, विक्रांत मैसी, विनीत कुमार, बृजेंद्र काला, दीपिका अमीन, सादिया सिद्दिकी, राजेंद्र गुप्ता, मनुकृति पाहवा, दिव्या जगदाले, यामिनी दास आदि ने जम कर काम भी किया। गीत-संगीत भी फिल्म के मिजाज़ के मुताबिक अच्छा लगा। लेकिन किसी किरदार के उभर कर आने और अंत में किसी दमदार मैसेज के अभाव में यह फिल्म ज़्यादा प्रभाव नहीं छोड़ पाती। पिछले दिनों यह सिनेमाघरों में आई है। जल्द किसी .टी.टी. पर आए तो ही देखिएगा, थिएटर की महंगी टिकट के लायक तो नहीं है यह।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

2 comments:

  1. आपके इस रिव्यु ने जैसे मेरे मन को पढ़ लिया। एकदम सटीक।

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