Sunday 18 April 2021

रिव्यू-कामुकता और क्राइम की अजीब दास्तानें

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
एंथोलॉजी यानी लगभग एक ही जैसे विषय पर कही गईं अलग-अलग कहानियों को एक ही फिल्म में पिरोना। हिन्दी सिनेमा वालों ने भी हिम्मत करके गाहे-बगाहे इस शैली को अपनाया है। नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई यह फिल्मअजीब दास्तान्सभी ऐसी ही चार दास्तानों को सामने ला रही है जो कमोबेश एक ही धागे से बंधी हुई हैं लेकिन इनमें आपस में कोई नाता नहीं है। असल में यह चार अलग-अलग निर्देशकों की बनाई चार शॉर्ट-फिल्मों का एक संकलन है जिसे एक ही थाली में रख कर परोसा गया है। हर किसी की अपनी-अपनी पसंद की फिल्म अलग-अलग हो सकती है। मगर आइए, पहले इनके गुण-दोषों की बात कर लें।
 
पहली कहानीमजनूउन शशांक खेतान की है जो ‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’ दे चुके हैं। उत्तर प्रदेश के किसी छोटे शहर के किसी बाहुबली की अंसतुष्ट पत्नी और उसके आशिक की इस प्रेम-कहानी के बरअक्स यह फिल्म आपसी रिश्तों के छल की बात करती है। इस कहानी में पिछले दो-एक साल में आई क्राइम और कामुकता भरी वेब-सीरिज़ का प्रभाव है। इसे खींच कर वैसे ही फ्लेवर वाली वेब-सीरिज़ भी बनाई जा सकती थी। बहरहाल, शशांक ने एक औसत कहानी को दिलचस्प अंदाज़ में परोसा है और यह निराश नहीं करती है। जयदीप अहलावत अपनी अदाकारी से प्रभावित करते हैं। फातिमा सना शेख, अरमान रल्हन और अरविंद पांडेय भी सही रहे।
 
दूसरी कहानीखिलौनाउन राज मेहता की है जो ‘गुड न्यूज़’ बना चुके हैं। रईसों के मौहल्ले में काम करने वाली युवा बाई मौहल्ले में टिके रहने और अपने काम निकलवाने के लिए जोड़-तोड़ करती है। यह कहानीदेखनेमें लुभाती है और इसका अंत चौंकाता है लेकिन यह इस फिल्म की सबसे कमज़ोर और वाहियात कहानी है जिसका सिर-पैर तो है लेकिन सिर, पैर की जगह लगा हुआ है। अंत में कहानी जिस तरह से खुलती है, उससे लगता है कि लिखने वाले ने यह मान लिया कि दर्शक तो कामवाली बाई की मादकता के नशे में होंगे और दिमाग चलाएंगे ही नहीं। इस तरह के कुटिल किरदारों में नुसरत भरूचा जंचती हैं, यहां भी जंची हैं। अभिषेक बैनर्जी अदाकारी के उस्ताद होते जा रहे हैं। मनीष वर्मा, श्रीधर दुबे भी सही रहे। छोटी बच्ची बिन्नी बनी इनायत वर्मा प्यारी लगीं।
 
मसानबना चुके नीरज घेवान ने तीसरी कहानीगीली पुच्चीमें एक फैक्ट्री में काम करने वाली दो अलग-अलग वर्गों की लड़कियों के ज़रिए उनकी आपसी होड़ और ईर्ष्या को दिखाया है। साथ ही वह जाति के ऊंच-नीच की बात करनी भी नहीं भूले हैं। इस कहानी में परिपक्वता है और गंभीरता भी। हालांकि इसकी रफ्तार बहुत सुस्त है और देखते हुए यह बेसब्र करती है। कोंकणा सेन शर्मा का काम बेहद प्रभावी रहा तो वहीं अदिति राव हैदरी जाने क्यों बनावटी-सी लगीं। ज्ञान प्रकाश, बचन पचहरा और श्रीधर दुबे जंचे। बचन पचहरा के दशरथ वाले किरदार को एकदम से किनारे नहीं किया जाना चाहिए था।
 
चौथी कहानीअनकहीको अभिनेता बोमन ईरानी के बेटे कायोज़ ईरानी ने निर्देशित किया है। धीरे-धीरे सुनने की क्षमता खो रही जवान बेटी की मां अपने पति से अपेक्षा करती है कि वह बेटी के लिए साइन-लैंग्वेज सीखे। लेकिन काम में डूबे पति को इतनी फुर्सत नहीं। तभी मां की ज़िंदगी में कोई और जाता है। या शायद वह खुद उसे आने देती है। यह कहानी भी काफी मैच्योर और ठहरी हुई है। ज़्यादातर सीन में बिना किसी संवादों के यह अपनी बात कहती है और अंत में बहुत ही प्रभावी ढंग से खत्म भी होती है। शेफाली शाह और मानव कौल जैसे सधे हुए अदाकारों की मौजूदगी वाजिब लगते हुए इस कहानी को ऊंचाई देती है। कहीं-कहीं तो ये दोनों ‘वन्स अगेन’ की शेफाली और नीरज कबी की सुहानी जोड़ी की भी याद दिलाते हैं। टोटा रॉय चौधरी और सारा अर्जुन का काम भी प्रभावी रहा है।
 
इन चारों ही कहानियों में कहीं कहीं इंसान के भीतर की कामुकता का अहसास है तो वहीं किसी किसी क्राइम का भी। या कहें कि अपराध से ज़्यादा अपराधबोध का। चारों ही में एक-एक गाना भी है जो अच्छा लगता है। बड़ी बात यह भी कि इस फिल्म को आप चार किस्तों में देख सकते हैं। बहुत ज़्यादा गहरी मार करते हुए भी ये कहानियां देखने में अच्छी लगती हैं। हां, ‘खिलौनाबकवास है, उसे देखने के बाद दिमाग मत लगाइएगा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
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दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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