-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
ट्रैकिंग के लिए गए चार लड़कों
को एक लड़की की लाश मिलती है। लड़की जस्टिस चौधरी की बेटी है। चौधरी के कहने पर ए.सी.पी.
अविनाश को इस केस में लगाया जाता है। अविनाश और उसकी टीम के लोग काफी छानबीन करके एक
दिन केस क्लोज़ कर ही देते हैं। लेकिन, केस क्लोज़ होने और केस सॉल्व होने में फर्क होता है, है न...?
अबान भरूचा देवहंस की लिखी कहानी
में नयापन भले न हो, रोचकता है। लड़की की लाश जहां मिली, वहां खून के निशान नहीं थे। यानी
कत्ल कहीं और हुआ। लड़की के साथ ज़बर्दस्ती नहीं की गई। यानी कत्ल का मकसद रेप नहीं था।
पिछली रात लड़की जहां ठहरी थी उस घर की मालकिन उसी दिन सीढ़ियों से गिर कर अब कोमा में
है। यानी उसकी गवाही मायने रखती है। लेकिन एक साइलेंट इंसान गवाही कैसे दे?
इस किस्म की कहानियों का सीधा-सा
उसूल है कि जो शख्स कातिल लग रहा हो, जिस पर सबसे ज़्यादा शक हो,
वह कभी कातिल नहीं होगा। यह फिल्म
भी इसी परंपरा का पालन करते हुए आगे बढ़ती है। अविनाश और उसकी टीम क्रिमिनोलॉजी यानी
अपराध विज्ञान के दिशा-निर्देशों के सहारे कड़ी दर कड़ी जोड़ते हुए आखिर कातिल तक जा पहुंचती
है।
लेकिन असल में यह फिल्म उतनी रोचक
भी नहीं है जितनी अब तक के बयान से आपको लग रही है। दरअसल इसकी स्क्रिप्ट में बहुत
सारे छेद हैं, झोल हैं, हल्कापन है और यही कारण है कि यह उस स्तर का तनाव, कसाव, बहाव नहीं रच पाती जो इस किस्म
की फिल्म में ज़रूरी होता है। जो दर्शक को इस कदर बांधे रखता है कि दर्शक दम साधे इसे
देखता रहे। ‘लाश को ठिकाने लगाने’ का मतलब उसे किसी पॉपुलर ट्रैकिंग साइट पर छोड़ना
नहीं होता, लाश के साथ उसका मोबाइल कौन छोड़ता है यार, सबको पता है कि मरने वाली का बाप
जस्टिस रह चुका है और वह कातिल की तलाश में सारे घोड़े खोल देगा लेकिन मजाल है कि एक
भी बंदा आगे बढ़ कर पुलिस की मदद करे, सब लोग जान-बूझ कर सच छुपाए जा रहे हैं गोया कि उन्हें डायरेक्टर
ने कह रखा हो कि वो करना जो मैं कहूं, वो नहीं जो होना चाहिए।
इसकी स्क्रिप्ट के हल्केपन के
साथ-साथ इसके किरदारों का बेहद कमज़ोर होना भी इसकी चाल के आड़े आता है। ए.सी.पी. को
टीम के नाम पर एक कांस्टेबल मिलता है जो कुछ नहीं करता और तीन इंस्पैक्टर जो कुछ नहीं
सोचते। तीन इंस्पैक्टर...!!! डायरेक्टर साहिबा, अपराध-विज्ञान तो आपने पढ़ लिया, पुलिस डिपार्टमैंट के ढांचे को
भी ज़रा समझ लेतीं। पुलिस में सब-इंस्पैक्टर से ऊपर सीधी भर्ती नहीं होती। प्राची देसाई
व साहिल वैद को इसमें इंस्पैक्टर दिखा कर आपने उनके साथ ज़्यादती ही की है। फिर, इन तीनों में ऐसा क्या था जो इन्हें
इस टीम में शामिल किया गया? चतुर, चालाक ये हैं नहीं और सोचने की इजाज़त इन्हें ए.सी.पी. नहीं देता।
कहानी में ए.सी.पी. की निजी ज़िंदगी घुसा कर, उसे गोली लगवा कर कहानी में रोड़े ही अटकाए गए। निजी ज़िंदगी बाकी
तीनों की नहीं थी क्या? और सबसे बड़ा पत्थर तो कहानी की अक्ल पर तब पड़ता है जब अंत में
कातिल पकड़ा जाता है। भाई साहब... सॉरी बहन जी,
अगर आखिरी वाला संयोग न बनता तो
आप का ए.सी.पी. कॉफी पीता रह जाता और कातिल फुर्र हो चुका होता। मतलब, आप लेखिका हो, डायरेक्टर हो तो कुछ भी दिखाओगी...?
मनोज वाजपेयी सिद्धहस्त अभिनेता
हैं इसलिए हर रोल में जंचते हैं, यहां भी जंचे हैं। वकार शेख हमेशा से भावहीन एक्टिंग करते आए
हैं, यहां भी की है। प्राची देसाई पहले कम सैक्सी थीं, इस बार ज़्यादा लगी हैं। साहिल
वैद उम्दा एक्टिंग करते हैं, इस कमज़ोर रोल में भी कर गए। बाकी के लोग ठीक ही रहे। फिल्म के
नाम का इसकी कहानी से कोई खास वास्ता नहीं है। फिल्म में ए.सी.पी. बने मनोज वाजपेयी
अपने जूनियर पर चिल्लाते रहते हैं-सोचा क्यों...?
यह फिल्म देखते हुए अगर आपने दिमाग
लगाया तो हो सकता है कि डायरेक्टर साहिबा आप पर भी चिल्लाने लगें। इसलिए, देखनी है तो ज़ी-5 पर चुपचाप देख लीजिए। बस, कुछ सोचिएगा नहीं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों,
पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’
के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बढ़िया, कहानी में झोल हो तो कोई भी फ़िल्म उत्कृष्ट नहीं बन सकती
ReplyDeleteसर रिव्यू तो इस बार फिल्म का पोस्टमार्टम टाईप लग रहा है 😊😊 मजेदार, रोमांचक ...
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