Sunday, 25 April 2021

ओल्ड रिव्यू-उम्मीदें जगाती है ‘निल बटे सन्नाटा’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
इंसान दो चीजों से बनता है-किस्मत और मेहनत। और गरीब के पास किस्मत होती तो वह गरीब ही क्यों होता? तो बची मेहनत, वही करनी होगी।
 
इस फिल्म का यह संवाद इसका पूरा ज़ायका बता देता है। आगरा में दूसरों के घरों और कारखानों में काम करके अपनी बेटी को पढ़ा-लिखा कर काबिल बनाने का सपना देख रही चंदा एक दिन उस के साथ उसी की क्लास में दाखिला ले लेती है। बेटी को लगता है कि मां खुद तो कुछ बन सकी और अब अपने सपने उस पर थोप रही है। पर जब उसे अक्ल आती है कि मां का सपना तो उसकी बेटी ही है तब वह मेहनत का पहाड़ तोड़ देती है।
 
अपनी फिल्मों में उम्मीदें जगाने की बात आमतौर पर नहीं होती। होती है तो बड़े ही फिल्मी स्टाइल में। लेकिन यहां सब कुछ सहज है, सरल है, अपना-सा है। यह इस फिल्म की खासियत तो है मगर कुछ जगह यही इसकी कमी भी बन जाती है। नाटकीयता का अभाव और घटनाओं का दोहराव इसकी रोचकता में कमी लाने लगता है। बावजूद इसके इस कहानी के ताने-बाने आपको कसे रहते हैं तो इसकी वजह है इसमें से हो रही उम्मीदों का रिसाव और कलाकारों का अभिनय। आखिरी सीन आपकी आंखें नम करने के लिए काफी है।
 
स्वरा भास्कर ने अपने दायरे से बाहर जाकर अभिनय के पायदान पर कई लंबे डग भरे हैं। पंकज त्रिपाठी तो ज़रा-सी बॉडी लेंग्युएज बदल कर ही किरदार को नई ऊंचाई पर ले जाने की कुव्वत रखते हैं। स्वरा की बेटी बनी रिया शुक्ला बेझिझक अपने काम को अंजाम देती हैं। रत्ना पाठक शाह और संजय सूरी भी अपने किरदारों को यकीन में बदलते हैं।
 
फिल्म बहुत कुछ सिखाती है। आपके इरादों को बुलंदी पर ले जाने की सीख देती है। ज़िंदगी को समझ कर जीने की राह दिखाती है और सबसे बढ़ कर उम्मीदें जगाती है-समाज के लिए और सिनेमा के लिए भी। डायरेक्टर अश्विनी अय्यर तिवारी की यह कोशिश काबिल--तारीफ है और काबिल--पुरस्कार भी।
अपनी रेटिंग-साढे़ तीन स्टार
(नोट-यह एक पुराना रिव्यू है जो 22 अप्रैल, 2016 को इस फिल्म के रिलीज़ होने पर लिखा कहीं छपा था। अब यह फिल्म .टी.टी. प्लेटफॉर्म ज़ी5 पर उपलब्ध है।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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