रोहित शैट्टी कॉमेडी फिल्में बनाने में माहिर समझे जाते हैं। अपनी ‘गोलमाल’ सीरिज़ की फिल्मों में वह और अजय देवगन यह महारत बखूबी दिखा चुके हैं। इसलिए जब आप ‘बोल बच्चन’ देखने जाते हैं तो आपके दिल में बड़े अरमान होते हैं। लगता है कि आज तो हंसते-हंसते थक ही जाएंगे। ऊपर से रोहित ने इस फिल्म को बनाने के लिए हृषिकेष मुखर्जी की अमोल पालेकर वाली क्लासिक कॉमेडी ‘गोलमाल’ के अधिकार भी खरीदे हैं। पर क्या सचमुच ऐसा हो पाया? क्या ‘बोल बच्चन’ अमोल पालेकर वाली ‘गोलमाल’ के आसपास भी खड़ी हो सकी? उदासी भरा जवाब है-नहीं,
बिल्कुल नहीं।
नौकरी की तलाश में रणक पुर आए अब्बास (अभिषेक बच्चन) का नाम उसके मालिक पृथ्वीराज (अजय देवगन) को गलत बताया जाता है। इस एक झूठ को छुपाने के लिए झूठ पर झूठ बोले जाते हैं और कहानी में नए-नए किरदार जुड़ते चले जाते हैं।
अब यह कहानी अपने-आप में इतनी दिलचस्प है कि इस पर एक कमाल की कॉमेडी फिल्म बन सकती थी लेकिन इसके साथ एक नहीं कई दिक्कतें रहीं। पहली तो यह कि इस कहानी के इर्द-गिर्द जो स्क्रिप्ट गढ़ी गई वह विश्वसनीय नहीं है। ‘गोलमाल’ में जहां सब कुछ बहुत सहज और कुदरती लगता है वहीं इस फिल्म में सारा घटनाक्रम बनावटी और जबरन ठूंसा गया महसूस होता है। फिर चाहे वह अजय देवगन की मृत प्रेमिका की शक्ल वाली असिन का रोल हो या नाटक मंडली के सदस्यों की भूमिकाएं। अतिनाटकीयता और बहुत ज्यादा लाउड होने के चलते यह सब अखरने लगता है। फिल्म के अंत में इस तरह का एक डायलॉग भी है कि जब प्रोड्यूसर दखल देने लगे तो रचनात्मकता की ऐसी-तैसी होती ही है। बता दूं कि फिल्म के निर्माताओं में खुद अजय देवगन भी हैं।
यह फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती हैं, उम्मीदों की डोर ढीली पड़ने लगती है और अंत में आपके हाथ ऐसा कुछ नहीं आता जिसे आप दिल-दिमाग में संजो कर घर ले जाएं। दरअसल रोहित की यह जो ज़िद रही कि वह इसे ‘गोलमाल’ से अलग बनाएंगे, हट कर बनाएंगे, उसी ने इस फिल्म का नुकसान किया। अलग हटते-हटते यह फिल्म इतनी ज़्यादा हट गई कि पटरी छोड़ कर प्लेटफॉर्म पर चढ़ गई और वहां मनोरंजन की सवारी के इंतजार में खड़े लोगों को कुचलने लगी। इससे तो बेहतर होता कि रोहित ‘गोलमाल’ की पूरी नकल ही पर्दे पर उतार देते।
ऐसा भी नहीं है कि फिल्म में हंसी हो ही न। बिल्कुल है। कहीं हल्की तो कहीं कुछ ठहाके वाली भी। लेकिन जल्द ही खुद को यह लगने लगता है कि इस हंसी में खोखलापन ज़्यादा है। अजय देवगन की गलत अंग्रेज़ी हंसाती है लेकिन सिर्फ उन्हीं को जो सही अंग्रेज़ी जानते हों। कृष्णा अभिषेक और वी.आई.पी. की जोड़ी ज़रूर इस काम में सफल रही है। दिक्कत किरदारों के साथ भी रही है। इनमें न तो गहराई आ पाई और न ही उठान। इसलिए कलाकारों की एक्टिंग भी फीकी लगती है। अजय देवगन के किरदार को काफी ज़्यादा नाटकीय बना दिया गया। अभिषेक कभी सहज दिखे तो कभी कमज़ोर। प्राची देसाई और असिन के हिस्से कुछ आया ही नहीं। असिन पहली बार इतनी ज़्यादा बदसूरत दिखीं। अर्चना पूरणसिंह और असरानी सही रहे।
रोहित की फिल्म हो और एक्शन न हो,
गाड़ियां न उछलें, यह नहीं हो सकता। यहां इन चीज़ों की गुंजाइश नहीं थी तो ज़बर्दस्ती एक खलनायक घुसेड़ा गया। लेकिन एक्शन भी वही पुराना घिसा-पिटा ही रहा। फिल्म का म्यूज़िक कामचलाऊ किस्म का है। गाने देखने में जितने अच्छे लगते हैं उतने सुनने में नहीं। दरअसल पूरी फिल्म ही ऐसी है जो अपनी चमक-दमक के चलते आंखों को सुहाती है मगर ज़रा थम कर सोचें तो यह अपने नाम के मुताबिक ‘बोल वचन’ ही ज़्यादा है।
अपनी रेटिंग-2.5 स्टार
(6
जुलाई,
2012 को इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरी यह समीक्षा किसी पोर्टल पर छपी थी। इस फिल्म को अब डिज़्नी-हॉटस्टार पर देखा जा सकता है।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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