प्रियदर्शन जैसे काबिल निर्देशक, यूनुस सजावल जैसे हिट लेखक, वीनस जैसा बड़ा बैनर, मलयालम की एक सफल फिल्म का रीमेक, ऊपर से ‘हंगामा’ का ब्रांड-सब चंगा ही तो है। अब इस पर ‘हंगामा 2’ नाम से कोई फिल्म बनेगी तो वह भी चंगी ही होगी,
लोगों का खूब मनोरंजन करेगी,
लोग उस तरह से हंसते-हंसते पागल भी हो सकते हैं जैसे प्रियन सर की ही ‘हेरा फेरी’,
‘भागम भाग’, ‘हंगामा’,
‘हलचल’, ‘चुप चुप के’,
‘दे दना दन’ वगैरह के समय हुए थे। लेकिन क्या सचमुच ऐसा हुआ...? ऐसा है...? ऐसा होगा...? जवाब है-नहीं, नहीं, नहीं...!
कपूर के बेटे आकाश की शादी बजाज की लड़की से होने वाली है कि तभी एक लड़की वाणी अपनी बेटी को लेकर आ धमकती है और कहती है कि आकाश उसकी इस बेटी का बाप है। उधर अधेड़ वकील तिवारी को शक है कि उसकी जवान बीवी अंजलि का आकाश के साथ चक्कर है। क्या आकाश-वाणी के बीच कुछ था? या क्या आकाश-अंजलि के बीच कुछ है? कन्फ्यूज़न आखिर है कहां?
बहुत सारे टेढ़े-बांके किरदारों को बहुत सारी कन्फ्यूज़न भरी सिचुएशंस में डालना और अंत में सबको एक जगह ले जाकर हंगामा करना प्रियदर्शन का पुराना स्टाइल रहा है और खुद को दोहराने के बावजूद वह हमें बेहिसाब हंसाते भी रहे हैं। लेकिन इस बार वह और उनकी टीम बुरी तरह से चूकी है और अपने ही बिखेरे कचरे पर से फिसलती हुई बोरियत के गड्ढे में जा गिरी है।
सबसे पहला कसूर तो उस कहानी का मान सकते हैं जो 27 बरस पहले आई एक मलयालम फिल्म से ली गई। ऐसी कहानियों को सिनेमा में आउटडेटेड कहा जाता है। पता नहीं प्रियन और वीनस वाले इस थकी-मरी कहानी पर राज़ी कैसे हो गए। दूसरा कसूर पटकथा लेखक यूनुस सजावल का रहा है जिन्होंने स्क्रिप्ट के नाम पर इस बार कचरा ही बिखेरा है जबकि यह साहब डेविड धवन और रोहित शैट्टी की फिल्मों में ढेरों ठहाके परोस चुके हैं। इस बार यूनुस न तो कायदे से घटनाएं रच पाए और न ही किरदार। हिमाचल में रह रहे दो पंजाबी परिवार और पंजाबियत की खुशबू तक नहीं? और हां,
यूनुस साहब,
इस फिल्म में आपके लिखे किरदार जो बातें जिस तरह से बोल रहे हैं न, उसे हम दर्शकों के घरों में बदतमीज़ी और बेहूदगी माना जाता है। रही-सही कसर मनीषा कोरडे और अनुकल्प गोस्वामी नाम के संवाद लेखकों ने पूरी कर दी। जहां सीधे-सीधे बात की जानी चाहिए थी, वहां भी डायलॉग ठूंस दिए। ठूंसो... जब हर कोई कचरा बिखेरने पर आमादा है तो आप लोग भी पीछे क्यों रहें...!
बतौर निर्देशक प्रियदर्शन को हिन्दी में कुछ ढंग का दिए हुए एक दशक हो चला है। उनका स्टाइल देखकर लगता है कि वह भी पुरानी पीढ़ी के उन निर्देशकों की तरह अब थक चुके हैं जिन्होंने खुद को वक्त के साथ नहीं बदला और जिनकी धार भोथरी होती चली गई। एक काबिल निर्देशक का ऐसा हश्र दुखद है। यह फिल्म देख कर लगता है कि उन्होंने कुछ किया ही नहीं। जिसने जो चाहा,
जैसे चाहा,
किया, उन्होंने न किसी को रोका, न दखल दिया। यहां तक कि वकील तिवारी ने बार में जब दो व्हिस्की विद् सोडा मांगी और लड़के ने उन्हें नीट व्हिस्की दे दी तब भी प्रियन सर सोते रहे। जी हां,
इस फिल्म के कचरेपन का सबसे बड़ा दोष आप ही का है प्रियन सर!
और अब एक्टिंग की बात। आकाश बने मीज़ान जाफरी बोलते कम और चिल्लाते-झल्लाते ज़्यादा रहे। भईए,
ऐसी ही एक्टिंग करनी है तो कोई और धंधा पकड़ लो,
क्यों बाप (जावेद जाफरी) दादा (जगदीप) का नाम खराब कर रहे हो। वाणी के किरदार में आई प्रणिता सुभाष दक्षिण की बड़ी अभिनेत्री हैं। बड़े नाम वालों के झांसे में आकर वह हिन्दी में इस कदर घटिया फिल्म से अपनी शुरूआत करेंगी, यह खुद उन्होंने भी न सोचा होगा। शिल्पा शैट्टी बस ठीक-ठाक ही लगीं। वैसे भी वह कभी उम्दा एक्ट्रैस नहीं मानी गईं। आकाश के भाई के रोल में रमन त्रिखा जैसे नॉन-एक्टर को लंबे समय बाद देख कर फिर से कोफ्त हुई। आकाश की बहन बनी अदाकारा फिल्म में कर क्या रही थी? वैसे, यह वाली बात तो फिल्म के लगभग हर दूसरे किरदार के बारे में कही जा सकती है। खासतौर से उन चार बच्चों के बारे में भी जिन्हें ज़बर्दस्ती फिल्म में डाल कर उनसे बाल-मज़दूरी करवाई गई। और यार, यह आज के ज़माने में चार बच्चे कौन पैदा करता है?
आशुतोष राणा,
मनोज जोशी,
परेश रावल, टिक्कू तल्सानिया, जॉनी लीवर, राजपाल यादव जैसे तजुर्बेकार कलाकारों तक की मौजूदगी जब महसूस न हो तो समझिए कि लेखकों ने मिल कर घास ही खोदी है।
फिल्म का गीत-संगीत बुरी तरह से सड़ांध मारता है। इस फिल्म के नाम के साथ ‘कन्फ्यूज़न अनलिमिटेड’ का पुछल्ला बांधा गया था। लेकिन इसे देखते हुए यह असल में ‘कचरा अनलिमिटेड’ लगता है। और हां, डिज़्नी-हॉटस्टार पर आई इस फिल्म में एडिटर की भूमिका लापता है। लगता है उनके हाथ से कैंची छीन कर उन्हीं पर तान कर कहा गया कि जो बना है, उसे जोड़ दो, कुछ काटना मत। सो, ढाई घंटे की यातना बनी है,
झेल लीजिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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