Friday 9 July 2021

रिव्यू-गले पड़ा ‘कॉलर बम’

हिमाचल प्रदेश के सनावर कस्बे के एक स्कूल में एक आतंकी अपने शरीर पर बम लपेटे घुस आया है। बम का कॉलर उसके गले में लिपटा है। उसके कहने पर वहां मौजूद पुलिस अफसर जिम्मी शेरगिल को अगले तीन घंटे में तीन टास्क पूरे करने हैं तभी इस कॉलर बम को रोका जा सकता है। कौन करवा रहा है यह सब? और जिम्मी से ही क्यों करवा रहा है? आखिर क्या है इस सबके पीछे? और क्या जिम्मी सारे टास्क पूरे कर पाएगा?
 
है दिलचस्प प्लॉट? लेकिन हर दिलचस्प प्लॉट पर उतनी ही दिलचस्प कहानी, उतनी ही कसी हुई स्क्रिप्ट और उतनी ही सधी हुई फिल्म भी बन जाए, यह ज़रूरी नहीं। यह फिल्म इस बात की एक सशक्त मिसाल है कि एक थ्रिलर कहानी को सोचने और उसे पर्दे पर पहुंचाने का टास्क पूरा कर पाने का माद्दा हर किसी में नहीं होता। इस कहानी में एक साथ बहुत कुछ घुसेड़ देने की जो जबरिया कोशिशें हुई हैं, पहला काम तो उन्होंने बिगाड़ा है। उसके बाद इसकी स्क्रिप्ट के रेशे इस तरह से बुने गए कि तो लॉजिक का ध्यान रखा गया और ही रोचकता का। इतने सारे झोल हैं डिज़्नी-हॉटस्टार पर आई इस डेढ़ घंटे वाली फिल्म की स्क्रिप्ट में कि उन झोलों पर अलग से तीन घंटे की एक कॉमेडी फिल्म बनाई जा सकती है।
 
ऊपर से ध्यानेश ज़ोटिंग (अंग्रेज़ी में यह नाम Dnyanesh Zoting लिखा है) के निर्देशन में भी कच्चापन है। उन्हें सीन बनाने आए ही नहीं। फिल्म में कहीं भी वह उस किस्म का तनाव क्रिएट नहीं कर पाए जो आपकी धड़कनें बढ़ा दे। ही कोई रोचकता है, इमोशन, डर, जुगुप्सा, रोमांच जैसे भाव उत्पन्न हुए। तो है क्या फिल्म में? बसडक डक डक डक... धम्म धम्म...’ का बैकग्राउंड म्यूज़िक भर डाल देने से थ्रिलर फिल्में नहीं बना करतीं साहब।
 
जब सब कुछ ढीला हो और किरदार तक हल्के लिखे गए हों तो कलाकार चाह कर भी कुछ दमदार नहीं कर सकते। जिम्मी शेरगिल बुझे-बुझे से लगे हैं। बाकी के तमाम कलाकार भी हल्के रहे। एक आशा नेगी ज़रूर प्रभावी काम करती दिखीं।
 
फिल्म के अंत में एक डायलॉग है-‘हर इंसान की ज़िंदगी में एक टाइम ऐसा आता है जब उसे सब कुछ साफ-साफ दिखाई देने लगता है...जब आप यह फिल्म देख रहे होते हैं तो आपकी ज़िंदगी का यह वाला टाइम आधी फिल्म में ही जाता है और आपको साफ-साफ महसूस होने लगता है कि इस फिल्म को देखने का फैसला करके आपने कितनी बड़ी गलती की।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

1 comment:

  1. यानी कि रिव्यु से ये साफ हो गया कि जिमी शेरगिल जैसे बढ़िया अभिनेता हैं तो क्या ,ये फ़िल्म नहीं देखनी चाहिये ☺️

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