-दीपक दुआ... (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
1971 में जब भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की मदद के लिए तैनात थी तो पाकिस्तान ने गुजरात और राजस्थान में कई जगह मोर्चे खोल दिए थे। भुज स्थित एयरबेस और हवाई पट्टी को तबाह कर दिया गया था। तब वहां के कमांडिंग अफसर विजय कार्णिक ने स्थानीय लोगों की मदद से तीन दिन में एक कामचलाऊ रनवे बना कर उस लड़ाई का पासा पलटने में मदद की थी। कुछ ही दूर एक मोर्चे पर हमारे 120 सैनिक पाकिस्तान के 1800 सैनिकों से जूझ रहे थे। उसी दौरान एक ‘पगी’ (रेगिस्तान के जानकार व्यक्ति) रणछोड़ दास ने भी सेना की बहुत मदद की थी। उन्हीं दिनों पाकिस्तान के एक बड़े आर्मी अफसर से ब्याही भारत की एक जासूस भी काफी अहम खबरें मुहैया करा रही थी।
वाह, चार घटनाएं...! इन पर तो चार फिल्में बन जाएं। और अगर ये चारों आपको इस एक फिल्म में मिल जाएं तो...? बल्ले-बल्ले न हो जाए...? पर काश कि ऐसा हुआ होता। काश कि ऐसा हो पाता। अफसोस...!
जिस फिल्म में दिखाने को ‘इतना कुछ’ हो और कहने को ‘इतना सारा’ हो,
उस फिल्म की कुल लंबाई दो घंटे से भी कम रखी जाए, उसमें से भी कुछ मिनट गाने खा जाएं और काफी सारे लड़ाई के सीन,
ऊपर से एक सूत्रधार आ-आकर बताए कि क्या हो रहा है तो समझ लेना चाहिए कि बंद कमरों में बैठ कर लिखी गई हर कहानी मैदान में आकर झंडे नहीं गाड़ा करती।
यह फिल्म ठीक वैसी ही एक चलताऊ फॉर्मूला फिल्म है जैसे चलताऊ किस्म की कॉमेडी या एक्शन फिल्में बनाई जाती हैं जिनमें हीरो,
हीरोइन, रोमांस, डांस, गुंडे, एक्शन जैसे मसाले थोड़े-थोड़े मिला कर 16 मसालों की चाट होती है। बस फर्क यह है कि इस फिल्म में युद्ध, इतिहास और देशभक्ति के मसाले हावी हैं।
इन दिनों वैसे भी राष्ट्रवाद की लहर है। ऐसे में स्वाभाविक है कि इस किस्म के विषयों पर धड़ाधड़ फिल्में आएं। लेकिन इंडस्ट्री की भेड़चाल में होता यह है कि कुछ अच्छी फिल्में आती हैं तो बहुत सारी कमज़ोर भी। यह फिल्म भी इन्हीं बहुत सारी फिल्मों में से ही है। दिक्कत असल में यह है कि इतिहास से संदर्भ तो आपने उठा लिए। लेकिन न तो पूरी रिसर्च की कि उसे तथ्यात्मक बना सकें और न ही अपनी कल्पनाओं का ज़ोर लगाया कि उसे मनोरंजक बना सकें। ऐसे में बचते हैं वही घिसे हुए फॉर्मूले। वरना ऐसी फिल्म हो और देखते हुए देशभक्ति उबाले न मारे,
भुजाएं न फड़कें, आंखें न भीगें तो समझिए कि बनाने वालों ने सिनेमा नहीं जाल बनाया है-आपको फंसाने के लिए।
अजय देवगन,
संजय दत्त,
सोनाक्षी सिन्हा जैसे बड़े नाम लिए हैं तो इनसे बड़े-बड़े काम करवाने ही थे।एकदम सुपरमैन किस्म के किरदार हैं इनके। शेर से कम तो ये मारेंगे नहीं और कुछ भी हो जाए, ये मरेंगे नहीं। शरद केलकर की आवाज़ प्रभाव छोड़ती है। साऊथ से आई प्रणिता सुभाष ने अगर ऐसे ही (अभी वह हंगामा 2 में भी आई थीं) रोल करने हैं तो उनसे यही कहा जा सकता है कि बहन तू वहीं ठीक है। क्यों यहां की रोटी के चक्कर में वहां के डोसे पर पानी फेर रही है? दोनों हीरोइनों से बेहतर तो नोरा फतेही लगीं। पंजाबी सिंगर-एक्टर एम्मी विर्क को काफी बड़ा रोल मिला। मुझे तो शक है कि उन्हें हिन्दी फिल्मों में लाने के लिए यह फिल्म बनवाई गई जिसमें उनके किसी गॉडफादर का भी हाथ रहा।
लोकेशन प्रभावी हैं। असीम बजाज का कैमरा असरदार रहा। वी.एफ.एक्स. बहुत भोले लगे। गीत-संगीत ठीक-ठाक रहा। अरे, निर्देशक की बात तो रह ही गई। रहने ही दीजिए। टी.वी. से पहली बार फिल्मों में आए अभिषेक दुधैया ने जिस तरह से इस फिल्म को बनाया है,
उनके बारे में कुछ न ही कहा जाए तो बेहतर होगा। बेकार ही कुछ उल्टा-पुल्टा निकल जाना है मुंह से।
हालांकि मेरा मानना है कि इस किस्म की फिल्में बनती रहनी चाहिएं ताकि देश की रक्षा करने वालों की कहानियां सामने आकर दर्शकों को हिम्मत दें,
उनके भीतर देशभक्ति के जज़्बे को बनाएं-बचाएं। लेकिन अगर बनाने वालों ने इन कहानियों के साथ यही सलूक करना है तो इससे ये लोग चंद पैसे भले कमा ले जाएं, भला ये किसी का नहीं कर पाएंगे-न देश का, न सिनेमा का।
जब कभी नॉनसैंस कॉमेडी फिल्में आती हैं तो अक्सर कहा जाता है कि इस फिल्म को दिमाग साइड पर रख कर देखें। मेरी सलाह है कि ‘भुज-द प्राइड ऑफ इंडिया’ को देखते समय भी आप दिमाग को साइड पर रख दें तो बेहतर होगा। इस फिल्म को देखते समय दिमाग या तर्क-बुद्धि का इस्तेमाल आपकी झुंझलाहट ही बढ़ाएगा। वैसे भी इस किस्म का एक्शन बड़े पर्दे पर ही जंचता है। हमने तो थिएटर पर प्रैस-शो में देख ली। आपके लिए तो डिज़्नी-हॉटस्टार ही बचता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
1971 में जब भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की मदद के लिए तैनात थी तो पाकिस्तान ने गुजरात और राजस्थान में कई जगह मोर्चे खोल दिए थे। भुज स्थित एयरबेस और हवाई पट्टी को तबाह कर दिया गया था। तब वहां के कमांडिंग अफसर विजय कार्णिक ने स्थानीय लोगों की मदद से तीन दिन में एक कामचलाऊ रनवे बना कर उस लड़ाई का पासा पलटने में मदद की थी। कुछ ही दूर एक मोर्चे पर हमारे 120 सैनिक पाकिस्तान के 1800 सैनिकों से जूझ रहे थे। उसी दौरान एक ‘पगी’ (रेगिस्तान के जानकार व्यक्ति) रणछोड़ दास ने भी सेना की बहुत मदद की थी। उन्हीं दिनों पाकिस्तान के एक बड़े आर्मी अफसर से ब्याही भारत की एक जासूस भी काफी अहम खबरें मुहैया करा रही थी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Maine movie dekhi or apka review bilkul shi h, movie unchi dukan fikar pakwan h
ReplyDeleteGood review
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