1999 में
हुई कारगिल
की लड़ाई
में भारत
ने क्या
खोया, क्या
पाया और
किस कीमत
पर पाया,
यह हम सब जानते
हैं। उस
युद्ध में
जान लड़ाने
और जान
गंवाने वाले
वीरों की
कहानियों को
सिनेमा में
भी दिखाया
गया जिनमें
से एक
‘एल.ओ.सी.
कारगिल’ ही
अब तक
सबसे प्रभावी
कही जा
सकती है।
करण जौहर
के बैनर
से अमेज़न
प्राइम पर
आई यह
फिल्म ‘शेरशाह’
भी उससे
ऊपर नहीं
उठ पाई
है। दरअसल
वॉर-हीरोज़
की कहानियों
का एक
तय ढर्रा
बना दिया
गया है।
उनका बचपन,
रोमांस, सेना
में जाने
की ललक
और सेना
में रह
कर दिखाए
गए शौर्य
के इर्द-गिर्द
ही ये
कहानियां घूमती
हैं। यह
फिल्म भी
वैसी ही
है।
कारगिल युद्ध
में असीम
शौर्य का
प्रदर्शन करते
हुए भारतीय
भूमि को
दुश्मन से
वापस हासिल
करते हुए कैप्टन विक्रम
बत्रा ने
सर्वोच्च बलिदान
दिया था।
लेकिन उन
जैसे रणबांकुरे
की कहानी
को पर्दे
पर उतारते
समय जोश
के जिस
उभार और
भावनाओं के
जिस ज्वार
की दरकार
थी, उसे
उकेर पाने
में इस
फिल्म के
लेखक बुरी
तरह से
नाकाम रहे
हैं। विक्रम
के बचपन
के केवल
एक सीन
के बाद
उनके रोमांस
और कैरियर
चुनने की
कन्फ्यूज़न को
लंबा खींचते
हुए यह
फिल्म सीधे
उनकी पहली
पोस्टिंग में
जा पहुंचती
है। उनके
सेना में
शामिल होने
के संघर्ष
और कमांडो
ट्रेनिंग हासिल
करने जैसे
सीक्वेंस यहां
होते तो
इससे कहानी
को वज़न
ही मिलता।
लेकिन न
तो हर
फिल्म ‘प्रहार’
हो सकती
है और
न हर
कोई नाना
पाटेकर।
फिल्म का
एक लंबा
हिस्सा विक्रम
और डिंपल
के रोमांस
का है।
इन दोनों
की चुहलबाज़ियां
प्यारी तो लगती हैं
लेकिन बनावटी
भी। रोमांस
की जिस
सुगंध से
दर्शक सराबोर
हो सकें,
वह इसमें
नहीं है।
इन्हें साथ
देख कर
यह मन
तो होता
है कि
ये हमेशा
के लिए
एक हो
जाएं लेकिन
विक्रम के
शहीद होने
के बाद
डिंपल के
लिए टीस
नहीं उठती।
ज़ाहिर है
कि लेखक
और निर्देशक
किरदारों और
दृश्यों को
गाढ़ा करने
से चूके
हैं। फिल्म
बताती है
(और हम
जानते भी
हैं) कि
विक्रम के
जाने के
बाद डिंपल
ने शादी
नहीं की।
लेकिन फिल्म
दिखाती है
कि उसी
विक्रम के
अंतिम संस्कार
के लिए
डिंपल का
इंतज़ार तक
नहीं किया
गया। क्या
सचमुच ऐसा
हुआ था?
और हां,
फिल्म उन
दोनों को
एक बिस्तर
में भी
दिखाती है।
युद्ध के
दृश्य अच्छे
से संयोजित
किए गए
हैं। लेकिन
जोश और
ड्रामा की
सीमित खुराक
दर्शक का
मन नहीं
भर पाती।
हां, सैनिकों
के विजय
हासिल करने
पर या
किसी सैनिक
के शहीद
होने पर
आपकी आंखें
ज़रूर नम
होती हैं।
दरअसल इस
फिल्म का
निर्देशन भी
कमज़ोर है।
करण जौहर
ने दक्षिण
के विष्णु
वर्धन को
इस फिल्म
के लिए
क्यों चुना
यह तो
वही जानें
लेकिन विष्णु
ने कहानी
कहने का
जो तरीका
चुना, वह
लचर है।
कहानी एक
ऐसे शख्स
द्वारा नैरेट
की जा
रही है
जो पूरी
फिल्म में
कहीं था
ही नहीं
और न
ही वह
उन जगहों
पर मौजूद
था जहां-जहां
विक्रम गए।
विक्रम के
बचपन के
दोस्त सनी
बने साहिल
वैद से
कहानी कहलवाई
जाती जिससे
विक्रम हर
बात साझा
करते थे तो थोड़ी
सही भी
लगती। नैरेटर
को लेकर
फालतू का
सस्पैंस बनाए
रख कर
फिल्म को
हल्का ही
किया गया।
फौजियों के
लंबे बालों,
1999 से पहले
के समय
में वाहनों
की सफेद
नंबर प्लेटों
और गुरुद्वारे
में दर्शन
करते समय
गुरुग्रंथ साहिब
के चार
चक्कर लगाने
जैसी गलतियों
को रिसर्च
की कमी
समझ कर
माफ किया
जा सकता
है।
सिद्धार्थ मल्होत्रा
औसत किस्म
के कलाकार
हैं सो
उनसे औसत
से बढ़
कर अभिनय
करने की
उम्मीद नहीं पाली जा
सकती। करण
जौहर भाई-भतीजावाद
को किनारे
रख किसी
मज़बूत कलाकार
को लेते
तो एक
युद्ध-नायक
की छवि
और दमदार
तरीके से
उभर कर
आ पाती।
कियारा आडवाणी
खूबसूरत और
प्रभावी, दोनों
लगीं। बाकी
कलाकारों को
छोटे-छोटे
सीन मिले
और उन्होंने
ठीकठाक-सा
काम भी
किया। लोकेशन
और कैमरा
असरदार रहा।
संगीत हालांकि
साधारण है
लेकिन गीतों
के बोल
बहुत प्यारे
लिखे गए
हैं।
इस किस्म
की फिल्में
बनती रहनी
चाहिएं ताकि
सरहदों के
भीतर सुरक्षित
बैठे हम
लोगों को
सनद रहे
कि हमारी
सरहदें किन
की और
कितनी कुर्बानियों
से सुरक्षित
होती हैं।
लेकिन इस
किस्म की
फिल्में बनाने
वाले भी
न भूलें
कि ऐसी
फिल्मों को
बनाने के
लिए जो
लगन, समर्पण,
साधना ज़रूरी
है उसके
बिना ऐसी
कहानियां असरदार
नहीं बन
पाती हैं। जोश और जुनून हाई लेवल पर न हो तो ऐसी कहानियों को नहीं छूना चाहिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि
फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां,
इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर
बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म
समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़
से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा
डॉट कॉम ’(www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित
लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स
गिल्ड’ के सदस्य हैं
और रेडियो व टी. वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Very nice
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