-दीपक दुआ...
एक पहाड़ी रास्ता। बर्फबारी ज़ोरों पर। दूर-दूर तक कोई नहीं। अचानक रास्ते पर एक पेड़ गिरा और मजबूरन समीर को एक ऐसे घर में शरण लेनी पड़ी जहां चार रिटायर लोग महफिल जमाते हैं। एक जज, एक सरकारी वकील, एक बचाव पक्ष का वकील और एक जल्लाद वहां आने वाले अजनबियों के साथ एक अनोखा खेल भी खेलते हैं जिसमें वह उस अजनबी पर मुकदमा चलाते हैं और फैसला सुनाते हैं। एक लड़की और एक लड़का भी इस घर में काम करते हैं। समीर के ऊपर मुकदमा चलता है कि उसने अपने बॉस का कत्ल किया है। क्या यह सच है? क्या यह साबित हो पाएगा? हो गया तो क्या यह अदालत समीर को सज़ा देगी? क्या होगी वह सज़ा? ‘हमारी अदालतों में इंसाफ नहीं फैसले होते हैं’ का बोझ उठाए जी रहे ये लोग सचमुच कोई इंसाफ कर भी पाते हैं या यह खेल उनके लिए महज़ एक ‘खेल’ ही है?
रंजीत कपूर की लिखी कहानी सचमुच हट के है, दिलचस्प है, पैनी है और यकीन मानिए शुरू से ही आपको बांध भी लेती है। हालांकि शुरू में भूमिका बांधने में जो समय लगता है उससे यह सिनेमाई न होकर रंगमंचीय लगने लगती है लेकिन यह उम्मीद बंधी रहती है कि जब यह ‘खेल’ शुरू होगा तो बर्फबारी में वहां आ फंसे समीर की ज़िंदगी के कुछ ढके हुए पन्ने उघड़ेंगे और मज़ा आने लगेगा। मज़ा आता भी है लेकिन स्क्रिप्ट के कुछ गैरज़रूरी हिस्से इसे हल्का बनाते हैं। जिस समय आप उम्मीद करते हैं कि फिल्म चोट करेगी, ठीक उसी समय यह कमज़ोर पड़ जाती है। बावजूद इसके यह फिल्म थ्रिल की ज़रूरी खुराक परोसती है और खुद को देखे जाने लायक भी बनाती है।
रूमी जाफरी ने फिल्में लिखीं भले ही बहुत सारी हों लेकिन बतौर निर्देशक वह अभी तक तीन औसत फिल्में ही दे पाए हैं। इस फिल्म के फ्लेवर और कलाकारों के कद के चलते उन्होंने एक बड़ी छलांग लगाई है। दृश्य रचते समय उन्होंने रहस्य और रोमांच का जो माहौल तैयार किया, वह फिल्म को गाढ़ा करता है। आपके मन में ये सवाल भी उठते हैं कि समीर वहां आया या उसे लाया गया? क्या ये लोग समीर को पहले से जानते हैं? लेकिन फिल्म इस बारे में खामोश रहती है। फिल्म की यह खामोशी भी इसका असर कम करती है।
अमिताभ बच्चन अपनी भारी आवाज़ और भव्य व्यक्तित्व के साथ हावी रहते हैं। उनकी संवाद अदायगी के उतार-चढ़ाव बेहद प्रभावशाली लगते हैं। लेकिन ऐसा भी महसूस होता है कि उन्हें ज़रूरत से ज़्यादा तवज्जो दी गई। इमरान हाशमी अपने किरदार के साथ न्याय करते हैं। अन्नू कपूर, रघुवीर यादव और धृतिमान चटर्जी असरकारी रहे। हालांकि यह भी महसूस होता है कि अन्नू को थोड़ा और फुटेज मिलना चाहिए था। रघुवीर यादव को तो बिल्कुल ही किनारे कर दिया गया। समीर सोनी, क्रिस्टिल डिसूज़ा, रिया चक्रवर्ती आदि साधारण रहे। रिया का मुंह सूजा-सूजा सा लगा। यह भी अच्छा हुआ कि सिद्धांत कपूर को गूंगा रखा गया। दो-एक गीत हैं, ठीक हैं। लोकेशन बहुत प्रभावशाली चुनी गई। विनोद प्रधान ने कैमरे से खेल करते हुए ज़रूरी रोमांच बनाए रखा। रसूल पूकुट्टी का साउंड डिज़ाइन भी फिल्म को प्रभावी बनाता है।
कानून की पतली गलियों से मुजरिमों के बच निकलने की बेबसी की बात करती यह फिल्म प्रभावी है। बस, कुछ और कस दी जाए, थोड़ी कुतर दी जाए तो यह ऐसा बांधे कि आप पूरी फिल्म में हिलने तक का नाम न लें। पर अभी भी इसे देखना घाटे का सौदा नहीं होगा। अमेज़न प्राइम पर बाद में आएगी यह। फिलहाल इसे थिएटरों में देखिए, थोड़ा दूर-दूर बैठ कर।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Umddaa
ReplyDeleteBhut bdia👏👏👏
ReplyDeleteBahut accha likha sir. Kuch reviews hi acche aaye hai iske baki ne toh bakwaas bataya hai.
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