Monday, 30 August 2021

ओल्ड रिव्यू-हंसाता नहीं खिजाता है यह ‘जोकर’

-दीपक दुआ...  (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
भारत के अंदरूनी इलाके का एक ऐसा गांव पगला पुर, जो किसी नक्शे में ही नहीं है। ऐसे में वहां कोई सुविधाएं हों भी तो कैसे? उसी गांव से निकल कर अमेरिका जाकर साईंटिस्ट बन गया (भई वाह...!) एक युवक अपनी दोस्त के साथ एक दिन वहां लौटता है और जब सरकार साथ नहीं देती तो वह जुट जाता है किसी तरह से अपने गांव को चर्चा में लाने के लिए। खबर फैलाई जाती है कि इस गांव में दूसरे ग्रह के वासी उतरे हैं।

कहानी का मूल प्लॉट दिलचस्प हो सकता है। कुछ हद तक है भी और एक किस्म से यह संदेश भी निकलता है कि हमारे देश के सुविधाओं से महरूम इलाकों और लोगों को ऐसे ही किसी चमत्कारिक ढंग से खुद को चर्चा में लाना पड़ता है तब जाकर सरकारी आंखें खुलती हैं। फिर चाहे वह किसी गड्ढे में किसी बच्चे का गिरना हो या फिर अपनी बात सुनाने के लिए किसी शख्स का किसी टॉवर पर चढ़ना। लेकिन इस फिल्म से अगर आप ऐसे किसी संदेश याकिसी भीकिस्म के मनोरंजन की उम्मीद लगाने जा रहे हैं तो ज़रा रुकिए! आपको बता दें कि इस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे पसंद किया जाए।
 
फिल्म की स्क्रिप्ट इस कदर लचर, बेसिर-पैर की और उथली है कि इसे
लिखने वाले (श्रीश कुंदेर) और उसे निर्देशित करने वाले (श्रीश कुंदेर) इंसान की समझ पर तो तरस आता ही है, अक्षय कुमार और यू.टी.वी. जैसे बड़े नामों पर भी हैरानी होती है जो इस तरह के प्रोजेक्ट में पैसे लगाने को राज़ी हो जाते हैं। अमेरिका से पगला पुर पहुंचते ही पटकथा का पगलापन पूरी तरह से सामने जाता है। उसके बाद जो होता है, क्यों होता है, क्या होता है, कब होता है, कुछ पता नहीं चलता। फिल्म बहुत छोटी है-महज़ पौने दो घंटे की, लेकिन जब इसे भी झेलना भारी पड़ जाए तो समझा जा सकता है कि यह किस कदर बेदम और पिलपिली है।
 
अक्षय अपने काम को बस निभाते भर ही नजर आए। सोनाक्षी सिन्हा को अगर इसी तरह के बार्बी-डॉल वाले रोल करके संतुष्टि मिल रही है तो यकीन मानिए, वह फिल्मों में भले ही ज़्यादा देर तक टिक जाएं, दर्शकों के दिल-दिमाग में जगह नहीं बना पाएंगी। श्रेयस तलपड़े का काम प्रभावी रहा। मिनिषा लांबा को तो जूनियर आर्टिस्ट जैसा रोल मिला। असरानी ठीक रहे तो दर्शन जरीवाला ने खूब खिजाया। गुरप्रीत घुग्गी जैसे कॉमेडियन को एक भी कायदे का सीन नहीं मिला।
 
फिल्म का संगीत एकदम साधारण है। चित्रांगदा सिंह का आइटम नंबरकाफिराना...’ डालने की वजह साफ समझ में आती है। फिल्म का गांव मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश,
राजस्थान
की सीमा पर कहीं है लेकिन यहां बजने वाले गीत-संगीत में महाराष्ट्र की बोली और धुनें सुनाई देती हैं। फिल्म के सैट्स अच्छे हैं और वह पगला पुर को सचमुच पगला पुर दिखाते हैं। श्रीश इस फिल्म को थोड़ी और ज़्यादा बचकानी, बेहूदी और फूहड़ बना देते तो मुमकिन है कि बच्चे ही इसे पसंद कर लेते लेकिन फिलहाल तो यहजोकरहंसाने या गुदगुदाने की बजाय खिजाने का काम ज़्यादा करता है। और हां, इसमें तो कहीं कोई हकीकत है और ही फसाना।
अपनी रेटिंग-1 स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम(www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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