Friday, 24 February 2017

रिव्यू-बिखरी-बिखरी मुड़ी-तुड़ी है ‘रंगून’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
1943 का वक्त। एक तरफ गांधी तो दूसरी तरफ सुभाष चंद बोस। अपने-अपने तरीके से आजादी की लड़ाई लड़ते लोग। उधर दूसरा विश्व-युद्ध भी जोरों पर। लेकिन इधर मुंबई में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में बनतीं और रिलीज होतीं ढेरों फिल्में। एक हीरोइन का निर्माता से प्यार। उस हीरोइन का बर्मा बॉर्डर पर सैनिकों के मनोरंजन के लिए जाना। हीरोइन और एक सैनिक के बीच में प्यार। बगावत-लड़ाई, रोमांच-रोमांस, नाच-गाना, देश के लिए मर जाना...।

वाह, क्या कुछ नहीं है इस फिल्म में। ये सब पढ़ कर अगर आप भी यही सोच रहे हैं तो जरा रुकिए। दरअसल बहुत कुछ होने भर से ही कोई फिल्म बहुत अच्छी नहीं बन जाती और इस फिल्म के साथ भी यही हुआ है। फिल्म जिस वेग से हमें 1943 के वातावरण में ले जाती है उतनी शिद्दत के साथ हमें उस माहौल का हिस्सा नहीं बनाती। फिल्म एक साथ बहुत कुछ कह देना, काफी कुछ दिखा देना चाहती है लेकिन इस फेर में चीजें काफी हल्की और उथली हो कर रह गई हैं।

फिल्म के संवाद उम्दा हैं। विशाल अपनी फिल्मों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीतिक कमेंट करते आए हैं। हिटलर बने कलाकार का जर्मनी के नक्शे पर पेशाब करने का सीन हो या अंग्रेज अफसर का भारतीयों को सबसे भ्रष्ट बताने वाला सीन, विशाल को जहां मौका मिला, उन्होंने कुछ न कुछ कहा ही है। लेकिन दिक्कत यह है कि यह फिल्म देखते हुए आप इससे जुड़ नहीं पाते। जिन प्रसंगों से आप जुड़ना चाहते हैं, वे बस छू कर निकल जाते हैं और बार-बार लगता है कि कुछ मिस हो रहा है। कसक उठती है कि विशाल भारद्वाज जैसे फिल्मकार की फिल्म इतनी बिखरी-बिखरी और मुड़ी-तुड़ी क्यों है।

फिल्म की लोकेशंस और डॉली आहलूवालिया के कॉस्ट्यूम फिल्म को वास्तविक बनाने में मदद करते हैं। लेकिन कई जगह रिसर्च की कमियां भी उजागर होती हैं। बर्मा बॉर्डर पर युद्ध के समय लगाए गए विशाल सैट अखरते हैं तो वहीं 1943 में आई सबसे हिट फिल्म किस्मतके दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है...के जिक्र की कमी भी खलती है। और अंत में आकर जिस तरह से फिल्म नौटंकी में तब्दील हो जाती है, वह इसके मिजाज से ही मेल नहीं खाता। और हां, चाहे मोहेंजो दारोका वक्त हो या 1943 का, प्रेमियों के बीच प्यार दिखाने के लिए हमारे फिल्मकारों को सिवाय लिप-किस्स के कोई और तरीका क्यों नहीं सूझता?

कलाकारों का अभिनय इस फिल्म का सबसे दर्शनीय पक्ष है। सैफ अली खान, कंगना रानौत और शाहिद कपूर अपने किरदारों से भरपूर न्याय करते हैं। कंगना की सहजता उनकी सबसे बड़ी खासियत है। अंग्रेजी जनरल बने ब्रिटिश कलाकार रिचर्ड मैक्कैब अपनी संवाद अदायगी से लुभाते हैं। लेकिन अब दिक्कत यहां भी यही रही कि सहायक भूमिकाओं में आने वाले ज्यादातर किरदारों को उठने-पनपने का मौका ही नहीं दिया गया। कंगना के सहायक जुल्फी के रोल में सहर्ष शुक्ला को जो मौका मिला वह बाकियों को नहीं।

गुलजार के गीत और विशाल का संगीत मिल जाएं तो अक्सर ऊंचाइयां छूते हैं। यहां भी यही हुआ है। कई गाने हैं जिन्हें सुनने में रस मिलता है तो कुछ एक को देखने में। बरसों पहले दूरदर्शन पर हिन्दी में डब होकर आए बच्चों के टी.वी. सीरियल एलिस इन वंडरलैंडके लिए इस जोड़ी के बनाए शीर्षक-गीत टप टप टोपी टोपी टोप में जो डूबे, फर फर फरमाइशी देखें हैं अजूबे...को ये अलग तरह से परोसते हैं।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़)

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