Sunday 19 February 2017

रिव्यू-इस ‘रनिंग शादी’ से तो भागना ही बेहतर

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
घर से भाग कर शादी करने में कितनी मुश्किलें आती हैं, यह हम अपने आसपास और फिल्मों में कई दफा देख चुके हैं। घर से भागने, शादी के इंतजाम और शादी हो जाने के बाद स्वीकार किए जाने या किए जाने के असमंजस के बीच पकड़े जाने, पिटने और जान गंवाने तक के किस्म-किस्म के डर इस तरह की शादियों से जुड़े रहते हैं।

अब सोचिए, कि कोई कंपनी हो जो इस सारे काम में आपकी मदद करे? आपको घर से भगाने से लेकर शादी करवाने और सुरक्षित वापस पहुंचाने तक का जिम्मा ले?

अब यह भी सोचिए कि अगर इस विषय पर कोई फिल्म बने तो उसमें कितना रोमांच, हास्य, ठहाके और मजा होगा, है कि नहीं?

पर अगर उसमें ये सब हुआ तो?

जी हां, यह फिल्म इसी आइडिया पर बनी है और इस शानदार आइडिया को बुरी तरह से बेकार करती नजर आती है।

अपने दोस्त के साथ मिल कर रनिंग शादी’ (डॉट कॉम को बीप मार कर उड़ा दिया गया है जो बहुत खिजाता है) नाम से एक वेबसाइट चलाने वाला हीरो दूसरों की शादियां तो कामयाबी से करवा देता है लेकिन जब उसकी खुद की शादी की बारी आती है तो कई सारे फच्चर फंस जाते हैं।

एक शानदार कॉमेडी बन सकने वाली यह फिल्म अगर ऐसी नहीं बन पाई है तो इसकी पहली और बड़ी वजह यही है कि इसका आइडिया जितना दिलचस्प है, स्क्रिप्ट उतनी ही कच्ची। चालीस जोड़ों को कामयाबी से भगा कर उनकी शादी करवाई गई लेकिन किसी की भी कहानी को ऐसा विस्तार नहीं मिल पाया जो दिलचस्पी जगाता, हंसाता या फिर सोचने को मजबूर करता। भाग कर शादी करने वाले लड़के-लड़की के अलावा उनके परिवार वालों का भी एक पक्ष होता है जिससे फिल्म एकदम मुंह मोड़ लेती है। हीरो की खुद की शादी में जो झोल आते हैं उसमें भी हंसने-हंसाने की तमाम गुंजाइशों को यह फिल्म बेकार करती जाती है क्योंकि कच्ची स्क्रिप्ट के अलावा अमित रॉय का कमजोर निर्देशन इसे एक स्तर से ऊपर उठने नहीं देता।

पंजाब में रहने वाले बिहारी युवक के किरदार में अमित साध जंचे हैं। उनके दोस्त साइबरजीत बने अर्श बाजवा को दमदार सीन मिलते तो बेहतर होता। तापसी पन्नू की पंजाबी तो ठीक रही लेकिन उनके चेहरे के भाव पूरी फिल्म में एक से ही रहे। उजाला मामा बने ब्रिजेंद्र काला जरूर राहत देते हैं। संगीत हल्का है।

नायिका को नायक से कब इतना प्यार हो गया कि वह उसके पीछे सबको छोड़ने के लिए राजी हो गई? परिवार वालों के दर्द को फिल्म क्यों नहीं दिखाना चाहती? और अंत में तो डायरेक्टर को समझ ही नहीं आया कि वह कहानी को समेटे कैसे? और हां, पहले ही सीन में स्कूल में पढ़ने वाली तापसी को प्रेग्नेंट दिखाए बिना क्या फिल्म की शुरूआत नहीं हो सकती थी? सवाल बहुत हैं, काश कि यह फिल्म जवाब भी लेकर आती। 
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़)

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