Sunday, 19 February 2017

रिव्यू-‘इरादा’ तो नेक है

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
फौज में जाने की तैयारी करने के लिए रोजाना शहर की नहर में तैरने वाली एक रिटायर्ड फौजी की जवान बेटी एक दिन कैंसर की आखिरी स्टेज पर पाई जाती है। इस शहर की जमीन और पानी को बर्बाद कर रही एक कैमिकल फैक्ट्री अचानक एक दिन ब्लास्ट से तबाह हो जाती है। क्या इन दोनों में कोई नाता है?

कीटनाशकों के बेजा इस्तेमाल से पंजाब की धरती के मरने की खबरों के पीछे का एक सच यह भी है कि कीटनाशक बनाने वाले कारखाने कैसे अपशिष्ट पदार्थों को जमीन और पानी में खपा रहे हैं। लेकिन रिवर्स बोरिंग जैसा तकनीकी टर्म किसी हिन्दी फिल्म का विषय भी बन सकता है, यह चौंकाने वाली बात है और इसके लिए फिल्म को लिखने-निर्देशित करने वाली अपर्णा सिंह सराहना की हकदार हैं।

फिल्म अपने कलेवर में ए वैडनसडेया मदारीकी झलक देती है, जहां कोई पीड़ित उठ कर सिस्टम से बदला लेने निकल पड़ा है। फिल्म गहरी बात करती है, ‘ईको-टेररिज्मकी बात करती है, पर्यावरण को दूषित करने वाले मालदारों और उन्हें रोकने वाले सिस्टम की मिलीभगत की बात करती है और बड़े कायदे से बताती है कि अगर सिस्टम की सरपरस्ती न हो तो ये मालदार हमारी आबोहवा से यूं खिलवाड़ नहीं कर पाएंगे। लेकिन यह कोई डॉक्यूमेंट्री नहीं है बल्कि इसमें थ्रिलर का टच है, सस्पेंस है, हल्के-फुल्के ढेरों पल हैं और साथ ही सोचने पर मजबूर करने का दम भी। मगर अफसोस यह कि ये सब उतना दमदार नहीं है कि यह फिल्म और इसका विषय दिलों की गहराई तक पहुंच कर लंबे समय तक असर छोड़ सके। जाहिर है कि इस कमी के लिए भी इसे लिखने और निर्देशित करने वाले ही कसूरवार हैं।

अरशद वारसी और नसीरुद्दीन शाह को एक साथ देखना सुहाता है। अरशद का बेफिक्र अंदाज हो या संजीदापन, दोनों में वह सहज लगते हैं। नसीर को शायरी पढ़ते हुए देखने का मजा ही अलग है। उनकी बेटी के किरदार में रुमाना अपेक्षित असर छोड़ती हैं। शरद केलकर साधारण रहे। उनके मैनेजर के रोल में राजेश शर्मा असरकारी रहे। प्रदेश की भ्रष्ट मुख्यमंत्री के रोल में दिव्या दत्ता ने अपने किरदार को बखूबी पकड़ा है। पत्रकार बनी सागरिका घाटगे फिल्म में हैं ही क्यों? नीरज श्रीधर ने अच्छा संगीत दिया है। गीत फिल्म के मिजाज को सपोर्ट करते हैं।

डिटेलिंग की कमी, कच्चेपन, थ्रिल और रोमांच की हल्की खुराक के बावजूद इस फिल्म को बनाने वालों का नेक इरादा इसमें दिखता है और यह फिल्म इसलिए भी देखी जानी चाहिए क्योंकि इस किस्म का सिनेमा हल भले न सुझाए, समस्या को बखूबी चित्रित करता है और यह भी कम बड़ी बात नहीं है।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़)

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