-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews
1975 का साल। इमरजैंसी का वक्त। राजस्थाण की एक रियासत के खजाणे को दिल्ली में बैठा एक दबंग णेता आर्मी के जरिए अपणे घर ले जाणा चाहता है। रियासत की राणी अपणे खास आदमी को इस खजाणे को आर्मी के चंगुल से लूटणे के लिए कहती है।
इमरजैंसी के दौराण की एक कहाणी काफी सुणी-सुणाई जाती है कि संजय गांधी के कहणे पर जयपुर की महाराणी गायत्री देवी का काफी सारा खजाणा जब्त कर लिया गया था। बाद में दोणों पक्षो की तरफ से कहा गया कि कोई खजाणा बरामद ही णहीं हुआ।
स्क्रिप्ट के मोर्चे पर फिल्म पूरी तरह से पैदल है। लेखक रजत अरोड़ा ने न तो तार्किकता का ख्याल रखा, न ही दर्शक के मन में उठने वाले सहज सवालों का। निर्देशक मिलन लूथरिया ने भी बस स्टाइल पर ध्यान दिया, फिल्म की गहराई पर नहीं। फिल्म का अंत एकदम बकवास है जिसके आने पर ठगे जाने का-सा अहसास होता है। जब लेखक-निर्देशक मिल कर किसी कहानी का सहज अंत तक न निकाल सकें तो वे नाकाम हैं, बस। हां, डायलॉग कई जगह अच्छे हैं। हालांकि वे सीन या कारनामों से मेल नहीं खा रहे होते और जबरन ठूंसे हुए-से लगते हैं।
चमकते चेहरे वाले सितारों की एक्टिंग की बात क्या करनी, जब उनके किरदारों में ही झोल है और फिल्म की कहानी में ही बड़ा सा होल है। संजय मिश्रा को देखना जरूर आनंद बढ़ाता है। गाने भी आइटमनुमा ही हैं।

देखा जाए तो कहाणी का प्लॉट दिलचस्प है। एक अभेद्य ट्रक में खजाणा, उसे लूटणे णिकले चार आदमी और साथ ही कहाणी में ढेर सारे ट्विस्ट। जो जैसा दिखता है, वैसा है णहीं और जो हो रहा है वैसा असल में होणा णही था।

इतिहास पर फिल्म बणाणे में विवादों का खतरा होता है लेकिण उसी इतिहास की किसी धटणा में कल्पणा का छौंक लग जाए तो ‘लगाण’ जैसी फिल्म भी बण सकती है और अफसोस... ‘बादशाहो’ जैसी भी।
वैसे ‘बादशाहो’ शब्द ही गलत है। इसका कोई अर्थ णहीं है। हां, पंजाबी लोग किसी को इज्जत के साथ पुकारते हुए बादशाहो जरूर कह देते हैं। इस फिल्म का नाम ‘बादशाह’ भी होता तो भी वह गलत होता क्योंकि इस कहाणी पर यह फिट नहीं बैठता। हाल की कई फिल्मों को देख कर तो यह लगणे लगा है अब मसाला फिल्मकार दर्शकों को खींचणे के लिए किसी भी किस्म का णाम रख रहे हैं भले ही उसका फिल्म या उसकी कहाणी से कोई जुड़ाव हो या ण हो।
आप पूछ सकते हैं कि यह क्या ‘ण’, ‘ण’ की रट लगा रखी है। दरअसल फिल्म में हर ‘न’ को ‘ण’ बोला गया है, बिना यह सोचे-समझे कि राजस्थानी बोली में हर ‘न’, ‘ण’ नहीं होता। इसकी तरफ पिछले दिनों लेखक मित्र रामकुमार सिंह ने इशारा किया था और यकीन मानिए, फिल्म देखते हुए ‘ण’-‘ण’ सुन कर उतनी ही कोफ्त होती है जितनी आपको ऊपर के हिस्से में इसे पढ़ कर हुई होगी।
बहरहाल, यह एक एक्शन-थ्रिलर है। चोरी करने की योजना बनाने, उसे करने और उसके बाद के परिणामों पर बनने वाली फिल्में देखना हमें अच्छा लगता है। लेकिन इस किस्म की फिल्म बनाने की पहली और जरूरी शर्त है कि कहीं, कुछ भी अतार्किक नहीं होना चाहिए। यह क्यों हुआ? कैसे हुआ? ऐसा ही होना था तो वैसा क्यों होने दिया? वैसा दिखा दिया तो अब ऐसा कहां से आ गया? उसे मार ही क्यों नहीं दिया? अब यह कहां से आ गया? जैसे दर्शकों के जेहन में उठने वाले सवालों के जवाब अगर फिल्म नहीं दे पाती तो फिर समझ लीजिए कि फिल्म बनाने वालों ने दर्शकों को मूर्ख मान लिया है कि ये तो मुंह उठा कर आ ही जाएंगे, तो ज्यादा मेहनत क्यों करनी?


दर्शकों को कमअक्ल मानने और मिल कर बेवकूफ बनाने की कोशिशें छोड़ हमारे फिल्म वालों को बढ़िया माल बनाने पर ध्यान देना ही होगा। काठ की हांडी अक्सर बना-बनाया नाम डुबो दिया करती है।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
Mujhe to afsos ajay dengan jaise unmdakalakarke carrier ka dubte hue dekh ke ho raha hai... Experience ke sath samjhdari badhani chahiye...Badshahi ke bare me apke kalam se likhe ko padh ke to samjhdari khatm hoti nazar arabi hai.. Anyway thank u sir
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