-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
कुछ अनगढ़ लोगों ने एक टोली बनाई। दुनिया के सामने नाचे-गाए मगर उनका असल मकसद कुछ और था।
याद कीजिए, यही थी न फराह खान की शाहरुख खान वाली फिल्म ‘हैप्पी न्यू ईयर’ की कहानी?
कुछ साल पहले लखनऊ जेल में कुछ कैदियों का एक म्यूजिकल बैंड बना था जिसकी ख्याति इतनी फैली कि जेल वालों ने उन्हें कभी-कभार बाहर जाकर परफॉर्म करने की इजाजत भी दे डाली।
अब सिर्फ इस बैंड की कहानी पर फिल्म बनती तो शायद सूखी रह जाती। सो, इसमें जेल से भागने का तड़का लगा कर बनी है ‘लखनऊ सैंट्रल’। नायक के बिना किसी कसूर के जेल में पहुंचने, एक एन.जी.ओ. वाली मैडम जी की मदद से वहां बैंड बनाने, भागने के लिए साथी चुनने और फिर वहां से भागने की योजना को अंजाम देने की इस कहानी में क्या कुछ नहीं हो सकता था? कायदे से डाले जाते तो आंसू निकालने वाले इमोशंस, मुट्ठियां बंधवाने वाले सीन, हिला देने वाले संवाद और भी न जाने क्या-क्या...! लेकिन फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है। इस तरह की फिल्में बनाने के लिए हमारे फिल्म वालों को 1981 में आई अंग्रेजी फिल्म ‘एस्केप टू विक्टरी’ जरूर देखनी चाहिए।
जवान लड़का जेल में 18 महीने बाद भी कसरती बदन लिए चुपचाप सब बर्दाश्त करता रहता है। बैंड बनाता है तो लल्लुओं को लेकर। चंद दिनों में उन्हें ट्रेंड भी कर देता है। मगर परफॉरर्मेंस से ठीक पहले उन्हें पेरोल पर छुड़वा देता है। भागना चाहता है ताकि बाहर जाकर बैंड बना सके। अरे भैये, लोग पहचानेंगे नहीं क्या तेरे को...?
ढेरों ऊल-जलूल और बेतुकी बातों के बीच राहत देने का काम सिर्फ और सिर्फ कलाकारों की एक्टिंग ने की है। फरहान खुद तो कमजोर लगे लेकिन दीपक डोबरियाल, राजेश शर्मा, गिप्पी ग्रेवाल, इनामुल हक, रोनित राय, वीरेंद्र सक्सेना, रवि किशन आदि को देखना आनंद देता है। डायना पेंटी भी बेहद साधारण रहीं। रंजीत तिवारी कायदे की स्क्रिप्ट ही खड़ी नहीं कर पाए तो निर्देशन कहां से बढ़िया देते। गाने भी बस दो ही जंचे।
एक हद के बाद यह फिल्म देखना जेल में कैद होने जैसा लगने लगता है। जबरन ठूंसी गई कहानी देखने से तो बेहतर है कि इससे दूर ही रहा जाए।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
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