-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
पिछले दिनों जिस किसी के भी सामने इस फिल्म का जिक्र हुआ तो यह सवाल सबसे पहले पूछा गया। यानी आप बिना आगे कुछ पढ़े यह समझ लीजिए कि कुछ फिल्में ऐसी होती हैं जो अपने नाम से ही पिटने लगती हैं। ‘अय्यारी’ उन्हीं में से एक है।
खैर, ‘अय्यारी’ या ‘अय्यार’ शब्द का मेरी जानकारी में इकलौता इस्तेमाल बाबू देवकीनंदन खत्री के ‘चंद्रकांता’ सीरिज के उपन्यासों में मिलता है। राजा-महाराजों द्वारा नौकरी पर रखे जाने वाला ऐसा गुप्तचर जो जरूरत पड़ने पर पल भर में रूप बदलने, घोड़े से भी तेज दौड़ने, किसी को तुरंत काबू करने, बेहोश को होश में लाने जैसे ढेरों ऐसे फन जानता हो जो उसे काबिल गुप्तचर बनाते हों।
अब बात इस फिल्म की। कहानी कुछ यूं है कि... छोड़िए, बड़ी ही उलझी हुई कहानी है। मेरा तो दिमाग घूम गया। इतनी करवटें, इतनी सिलवटें, इतनी परतें, इतने मोड़ कि आप अपने बाल नोंच डालें कि भैय्ये, कहना क्या चाहते हो? जो कहना चाहते हो, सीधे-सीधे कह दो, नहीं तो घुमा-फिरा कर कह दो, यह जलेबियां क्यों बना रहे हो भाई?
चलिए ट्रीटमैंट की बात कर लेते हैं। अपने फ्लेवर से ‘एक था टाईगर’, ‘फैंटम’, ‘बेबी’, ‘हाॅलीडे’, ‘स्पेशल 26’, ‘बेबी’, ‘नाम शबाना’, ‘रुस्तम’ जैसी लगती इस फिल्म में कुछ भी नया नहीं है। बल्कि ऐसा लगता है कि नीरज ने ऐसे मिजाज की फिल्मों में से थोड़ा-थोड़ा चुरा कर अपनी ‘अय्यारी’ से उन्हें रूप बदल कर परोस दिया है। भारतीय सेना के अंदर के भ्रष्टाचार, सफेद कॉलर में देश को बेचने निकले सौदागरों और रक्षा-सौदों से पैसे बना रहे लोगों के साथ-साथ मुंबई के आदर्श सोसायटी घोटाले जैसे भारी-भरकम मुद्दों को एक साथ समेटती इस फिल्म में बहुत कुछ कहने-दिखाने की गुंजाइश थी लेकिन यह हर मोर्चे पर औंधे मुंह गिरी है। इसे देखते हुए न आप चौंकते हैं, न दहलते हैं, न आपकी मुठ्ठियां भिंचती हैं, न आपके अंदर देशप्रेम हिलोरे मारता है, न आप भावुक होते हैं, न आपको गुस्सा आता है, न आपको यह उदास करती है। सच तो यह है कि यह फिल्म आप पर कोई ऐसा असर नहीं छोड़ती जिसे लेकर आप थिएटर से बाहर निकलें। हां, सिर जरूर चकराता है और जब-जब आप के मन में सवाल आता है कि यार, ऐसा ही करना था तो वैसा क्यों किया? तो यह फिल्म आपकी समझ को ठेंगा दिखाती हुई आगे बढ़ जाती है।
बतौर लेखक नीरज पांडेय ‘टोटल स्यापा’ जैसी सुस्त और ‘नाम शबाना’ जैसी अतार्किक पटकथाएं लिख चुके हैं लेकिन ‘अय्यारी’ उनके सबसे कमजोर लेखन का प्रमाण है। बतौर निर्देशक तो यह उनकी सबसे खराब फिल्म है ही। बल्कि इसे देखते हुए शक होता है कि क्या सचमुच यह उन्होंने ही डायरेक्ट की है? नीरज बाबू, सिर्फ पोस्टर को तिरंगा कर देने से देशप्रेम वाली फिल्में नहीं बन जातीं।
इस फिल्म के गाने भी बहुत हल्के हैं। कलाकारों में एक मनोज वाजपेयी ही हैं जो अपने किरदार को अपने प्रयासों से ऊपर ले जाते हैं वरना यह फिल्म तो अनुपम खेर, कुमुद मिश्रा, आदिल हुसैन जैसे बेहतर कलाकारों को भी खराब करती दिखी है। नसीरुद्दीन शाह प्रभावी रहे हैं। सिद्धार्थ मल्होत्रा और रकुल प्रीत सिंह की जोड़ी इस फिल्म का एक और कमजोर पक्ष है। भई जब बनाने वाले ने बिना तैयारी के पूरी ‘अय्यारी’ बना दी हो तो मजदूरी लेकर उसमें काम करने वाले भी भला कितना इनपुट डाल पाते। भूल जाइए इसे।
अपनी रेटिंग-एक स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार
हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय।
मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित
लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
aapka blog mujhe padhna bahut acha lagata hai very nice sir
ReplyDeleteशुक्रिया अजय जी...
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