-दीपक दुआ...
2006 में पहली बार बाहुबली भगवान के बारे में सुना और समझा था जब टी.वी. चैनलों पर उनकी विशाल मूर्ति का महामस्ताभिषेक होते हुए देखा था। अद्भुत नजारा था। आसमान से बातें करती मूर्ति के पीछे से बनाए गए प्लेटफॉर्म पर चढ़ कर श्रद्धालु विभिन्न पदार्थों से मूर्ति का अभिषेक कर रहे थे। तब मन में इच्छा जगी कि कभी इस जगह को साक्षात देखा जाए। और आखिर पिछले दिनों यह इच्छा पूरी भी हो गई।
दिल्ली से बंगलुरु की करीब ढाई घंटे की उड़ान के बाद आगे का लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर का हमारा सफर सड़क के रास्ते से था। शानदार बने हुए हाईवे से यह रास्ता भी करीब ढाई घंटे में तय कर लिया गया। जब हम हासन जिले के छोटे-से कस्बे श्रवणबेलगोला में पहुंचे तो सूरज अभी ढला ही था लेकिन पूरा कस्बा एक अनोखी शांति में डूबा हुआ था। प्रदूषण और शोर-शराबे से परे यह जगह अपने पहले ही परिचय से मन हरने लगती है। दरअसल श्रवणबेलगोला ही वह जगह है जहां भगवान बाहुबली की एक ही पत्थर से बनी 57 फुट ऊंची वह प्रतिमा है जिसे देखने के लिए हम यहां पहुंचे थे। तय हुआ कि सुबह जल्दी उठ कर पहले पहाड़ी पर स्थित बाहुबली भगवान के दर्शन किए जाएं और उसके बाद कुछ और।
कौन थे बाहुबली?
बाहुबली ऋषभदेव के पुत्र थे। इक्ष्वाकू वंश के राजा ऋषभदेव को भगवान राम का पूर्वज माना गया है। अपना राज्य त्याग कर कैलाश पर तपस्या करने चले गए ऋषभदेव को ही जैन धर्म का पहला तीर्थंकर आदिनाथ कहा जाता है। उन्होंने संन्यास लेते समय अपना राज्य अपने सौ पुत्रों में बांट दिया था। उन्हीं में से दो पुत्र थे भरत और बाहुबली। जब भरत को चक्रवर्ती बनने की इच्छा हुई तो उसने अश्वमेघ यज्ञ किया जिसे उसके सभी भाइयों ने मान दिया और उसकी आधीनता स्वीकार की। लेकिन बाहुबली अड़ गए कि तुम भाई बन कर आते तो मैं पूरा राज्य दे देता लेकिन अब क्षत्रिय धर्म निभाते हुए बिना लड़े कुछ न दूंगा। तब बुद्धिमान मंत्रियों की राय से इनके बीच तीन अनोखी प्रतियोगिताएं हुईं जिनमें बाहुबली ने भरत को हरा दिया। मल्ल-युद्ध की अंतिम प्रतियोगिता में जब वह भरत को पटकने ही वाले थे कि उन्हें पश्चाताप और वैराग्य का बोध हुआ और वह सारा राज्य भरत को सौंप जंगल में तपस्या को चले गए। जंगल में उन्होंने पानी, भोजन और वस्त्रों तक का त्याग करके एक ही स्थान पर खड़े होकर ऐसी घोर तपस्या की कि उनके शरीर पर बेलें चढ़ गईं और सांप-बिच्छू चलने लगे। इसी तपस्या से उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और साथ ही मोक्ष भी। बाहुबली को जैन परंपरा में प्रथम ज्ञानी माना जाता है और जैन धर्म के उपासक अपने 24 तीर्थंकरों के अलावा 25वें भगवान बाहुबली की पूजा करते हैं।
क्यों है तीर्थ श्रवणबेलगोला
श्रवणबेलगोला ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। ईसा से तीन सदी पहले हुए चाणक्य के शिष्य और मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य अपने पुत्र बिंदुसार को राज्य सौंप कर जैन गुरु भद्रबाहु के साथ अपने अंतिम समय में यहीं आ गए थे। यहां उन्होंने जिस पर्वत पर तपस्या और जैन परंपरा के संथारा (भोजन का त्याग) करते हुए देह छोड़ी उसे आज चंद्रगिरी पर्वत कहा जाता है जिस पर उनकी और उनके गुरु की समाधि बनी हुई है। यहां 200 सीढ़ियां चढ़ कर पहुंचा जा सकता है। उनके वंशज सम्राट अशोक का बनवाया मंदिर भी यहां है। लेकिन श्रवणबेलगोला जाने का सबसे बड़ा आकर्षण भगवान बाहुबली की अद्भुत प्रतिमा का दर्शन ही है जो यहां के दूसरे पहाड़ विंध्यगिरी (इंद्रगिरी) पर बनी हुई है। चंद्रगिरी के ठीक सामने स्थित इस पहाड़ को यहां के निवासी बड़ा पहाड़ भी कहते हैं।
यहां स्थित कल्याणी सरोवर के पास से ऊपर जाने के लिए 644 सीढ़ियां बनी हुई हैं जिन पर बिना जूते-चप्पल के जाना होता है। नीचे जूताघर में पांच रुपए देकर नंगे पांव चढ़ना शुरू किया तो रुकते-रुकाते, फोटो खींचते, बिना थके आधे घंटे में ऊपर जा पहुंचे। अगर चल कर न जाना चाहें तो चार कहारों द्वारा उठाई जाने वाली कुर्सीनुमा डोली की व्यवस्था भी है। इस पर्वत पर पहले ब्रह्मदेव मंदिर आता है जिसकी अटारी में पार्श्वनाथ स्वामी की मूर्ति है।
ऊपर अलग-अलग समय पर बने बहुत सारे प्राचीन जैन मंदिर हैं जिनमें विभिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं। पर्वत पर सैंकड़ों वर्ष पुराने लेख भी उत्कीर्ण हैं जिन्हें संरक्षित रखने के लिए कांच से ढक दिया गया है। बाहुबली की मूर्ति से पहले भरत चक्रवर्ती और बाहुबली के छोटे मंदिर भी हैं। यहीं गुल्लिका अज्जी नाम की उस वृद्धा की भी मूर्ति है जिसने अपनी छोटी-सी लुटिया से इस विशाल प्रतिमा का अभिषेक कर चामुंडराय के अंदर आए अहंकार को नष्ट किया था।
किसने बनवाई यह प्रतिमा
दरअसल वर्ष 981 में बन कर तैयार हुई इस प्रतिमा का निर्माण उस समय के यहां शासन कर रहे गंग-वंश के सेनापति चामुंडराय ने करवाया था। चामुंडराय को उनकी मां बचपन में गोम्मट कहा करती थीं इसलिए इस जगह को गोम्मटेश्वर भी कहा जाता है। खास बात यह है कि यह मूर्ति कहीं से पत्थर लाकर या पत्थरों को जोड़ कर नहीं बनाई गई है बल्कि इसका निर्माण इसी विंध्यगिरी पर्वत के शिखर पर पर्वत को काट कर किया गया है। विश्व भर में एक ही शिला से बनी सबसे ऊंची प्रतिमाओं में इसकी गिनती होती है। इस प्रतिमा के निर्माण में उस समय के शिल्पियों के अद्भुत कला-कौशल के साथ-साथ
खगोल विज्ञान व भौतिक विज्ञान में पारंगत होने का प्रमाण भी मिलता है। प्रतिमा इस तरह से बनाई गई है कि इसकी छाया जमीन पर नहीं गिरती। इतनी बड़ी प्रतिमा होने के बावजूद इस पर कोई पक्षी नहीं बैठता जिसके पीछे यह कारण है कि इसके सारे किनारे गोलाकार हैं। एक हजार साल से भी पुरानी होने के बावजूद आज भी ग्रेनाइट पत्थर से बनी यह प्रतिमा ऐसे चमकती हुई नजर आती है जैसे इसका निर्माण हाल ही में हुआ हो। माना जाता है कि बाहुबली की इस प्रतिमा को अलग-अलग कोण से देखने पर इसके अलग-अलग भाव दिखाई देते हैं। सत्य, अहिंसा, विश्व शांति, आत्म कल्याण, निशस्त्रीकरण के अतिरिक्त अहंकार और मोह-माया से से अलग रहने का संदेश यहां आकर मिलता है।
कब होता है बाहुबली का अभिषेक?
माना जाता है कि बाहुबली की प्रतिमा का पहला मस्तकाभिषेक सन् 981 ईसवीं हुआ था। उसके बाद जनश्रुतियों और शिलालेखों से चैदहवीं शताब्दी में अभिषेक होने के प्रमाण मिलते हैं। पिछली तीन-चार शताब्दियों से हर 12 साल में यहां मस्तकाभिषेक होता है जिस दौरान लाखों की संख्या में लोग यहां पहुंचते हैं। अब 17 से 25 फरवरी, 2018 को होने जा रहे अभिषेक की तैयारियां जोरों पर चल रही हैं। यात्रियों के ठहरने के लिए टैंट-नगरी बनाई जा रही हैं जिनमें रहना-खाना मुफ्त होगा। पहाड़ पर विदेशी तकनीक से प्लेटफॉर्म बनाया जा रहा है जिस पर एक वक्त में आठ-दस हजार लोग बैठ सकेंगे। पानी, दूध, नारियल पानी, गन्ने के रस, चंदन, केसर आदि से होने वाले बाहुबली के अभिषेक के अद्भुत समारोह में शामिल होने के लिए यहां बड़ी तादाद में लोग पहुंचते हैं।
कब जाएं
अक्टूबर से मार्च का समय यहां जाने के लिए सबसे बढ़िया रहता है। मार्च से मई तक खासी गर्मी पड़ती है। बरसात के दौरान भी लोग यहां आने से बचते हैं। हर 12 साल बाद होने वाले महामस्तकाभिषेक के दौरान यहां जाने का अलग ही महत्व है।
कैसे पहुंचें
श्रवणबेलगोला से नजदीकी बड़ा एयरपोर्ट और रेलवे स्टेशन बंगलुरू है जो सड़क मार्ग से करीब 150 किलोमीटर दूर है। बंगलुरू के यशवंत पुर स्टेशन से दिन भर में चार ट्रेन भी हैं। मैसूर से आएं तो यह दूरी लगभग 80 किलोमीटर की है और हासन से यहां की दूरी तकरीबन 53 किलोमीटर है। दिल्ली से बंगलुरू और हासन के लिए सीधी ट्रेन भी है।
रहने-खाने की व्यवस्था
श्रवणबेलगोला बहुत ही छोटी-सी जगह है जहां रहने के लिए कई छोटे होटल-लॉज हैं। साथ ही यहां बहुत सारे ट्रस्टों के बनाए कमरे, धर्मशालाएं भी हैं जिनमें रहना-खाना लगभग मुफ्त है। बाजार में कुछ एक अच्छे रेस्टोरेंट हैं जिनमें बढ़िया दक्षिण भारतीय व्यंजन मिलते हैं। तीर्थ-क्षेत्र होने के कारण यहां मांसाहार और शराब आदि का सेवन निषेध है। यहां ताजे तोड़े गए पानी वाले नारियल काफी कम दाम में मिल जाते हैं।
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आप चाहे जिस भी धर्म से हों, इस मूर्ति को एक झलक देखने के बाद इंसान अपलक हो जाता है। शब्द तो छोड़िए, भाव तक शून्य हो उठते हैं और आप एकटक इसे निहारने लगते हैं। सच तो यह है कि यहां की यात्रा आपको एक ऐसे समृद्ध ऐतिहासिक और आध्यात्मिक अनुभव से परिचित करवाती है जिसे आप यहां से लौटने के बाद भी नहीं भूल सकते।
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