एक सीन देखिए। एक करप्ट पुलिस अफसर एक मां से कहता है तू यहां नमाज़ पढ़,
अंदर मैं तेरे बेटे को मारता हूं। देखता हूं तेरा अल्लाह उसे कैसे बचाएगा। नमाज़ खत्म होने तक अपना हीरो आकर उस पुलिस वाले को मार देता है।
दूसरा सीन देखिए। एक और करप्ट पुलिस अफसर मोहर्रम के दिन एक मुस्लिम लड़की की इज़्ज़त पर हमला करता है। अपना हीरो आकर उस पुलिस वाले को मोहर्रम के मातम के बीच मार देता है।
आप कहेंगे कि यह फिल्म तो सिर्फ मुस्लिम दर्शकों को खुश करने के लिए बनाई गई है। ऐसा नहीं है जनाब,
जब भी अपना हीरो किसी करप्ट पुलिस अफसर को मारता है तो पीछे से शिव तांडव स्तोत्र बजने लगता है। लीजिए, हो गए न हिन्दू दर्शक भी खुश...?
हीरो चुन-चुन कर करप्ट पुलिस अफसरों को मारता है। मारता ही नहीं, जलाता भी है। क्यों? इसके पीछे उसकी अपनी एक स्टोरी है। दूसरा हीरो यानी ईमानदार डी.सी.पी. उसे पकड़ने की फिराक में है और उसकी भी अपनी एक स्टोरी है। हीरो के पास हीरोइन है जिसकी एक और स्टोरी है। इसके बाद होता यह है कि... छोड़िए न, क्या फर्क पड़ता है कि क्या होता है,
कैसे होता है। जिस फ्लेवर की यह फिल्म है उसमें स्टोरी की क्वालिटी से ज़्यादा मसालों का तीखापन देखा जाता है और वो इस फिल्म में प्रचुर मात्रा में छिड़का गया है।
कहानी ठीक-ठाक सी है जिस पर लिखी स्क्रिप्ट पैदल होने के बावजूद आम दर्शकों को लुभाने का दम रखती है। भ्रष्ट पुलिस वालों को ‘न केस न तारीख, सीधे मौत की सज़ा’ टाइप की फिल्में अपने यहां अक्सर आती हैं और उन्हें आम दर्शकों की तालियां-सीटियां भी मिलती हैं। पर्दे पर ही सही, हीरो के हाथों भ्रष्ट लोगों को मारे जाते देखने का अपना एक अलग ही सुख होता है और यह सुख इस फिल्म को देखते हुए भी बार-बार मिलता है। इस किस्म की फिल्मों में डायलॉग भी ऐसे ही रखे जाते हैं जो सिंगल-स्क्रीन थिएटरों और छोटे सैंटर्स में तालियां पा सकें। एक्शन ज़बर्दस्त भले न हो, दहलाता तो है ही।
जॉन अब्राहम अपनी रेंज में रह कर ठीक-ठाक काम कर लेते हैं। मनोज वाजपेयी भी अपना दम दिखा देते हैं। अमृता खानविलकर जैसी अदाकारा के टेलेंट को फिल्म ज़ाया करती है। नई तारिका आयशा शर्मा में सिर्फ आत्मविश्वास है। एक्टिंग उन्हें अभी सीखनी है और आवाज़ उनकी बेहद खराब है। म्यूज़िक कमज़ोर है। मिलाप मिलन ज़वेरी का डायरेक्शन साधारण रहा है।
सिर्फ मसालों के चलते यह फिल्म आम दर्शक-वर्ग को लुभाने का दम रखती है। हां,
ज़रा-सा भी लॉजिक या दिमाग इस्तेमाल करना घातक साबित हो सकता है।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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